ताकात भरी छे, तेनी प्रतीत करीने एकाग्र थाय तो परमात्मदशानो आनंद प्रगटे छे. पुण्य तो क्षणिक विकार छे,
ते रहित वस्तुस्वभाव छे, तेने जाणे नहि अने पुण्यने धर्म माने, तेथी कांई तेने धर्म थाय नहि. जेम कोई माणस
अग्निने ठंडो मानीने तेने अडे तो कांई अग्नि तेने दझाडया वगर रहे नहि, अग्निनो ऊनो स्वभाव छे ते मटी जाय
जाणे नहि अने पुण्य–पापना क्षणिकभावने पोतानुं स्वरूप माने छे ते अज्ञानी मिथ्याद्रष्टि छे. आत्मा नवो थतो
नथी, पण पुण्य–पापना भाव तो नवा नवा थाय छे, पाप बदलीने पुण्यभाव नवा थाय छे, ने वळी पुण्यभाव
टळीने पापभाव थाय छे, आत्मा तो त्रिकाळ रहेनार छे, माटे आत्माथी ते पुण्य–पाप जुदा छे, अने शरीरादि
संयोगो जड छे ते पण आत्माथी जुदा छे. अहाहा! हुं ज्ञातास्वरूप चैतन्यमूर्ति छुं आवुं भान आठ वर्षनी
राजकुंवरीओ पण करे छे. अहो! शरीरादि अने पुण्य–पापथी हुं जुदो छुं, चैतन्यस्वभावथी परिपूर्ण छुं––एम
पहेलांं साची समजण करीने रुचि करे, पछी वीतरागता ने केवळज्ञान थतां एक बे भवनी वार लागे, पण
अंतरमां आत्मानी श्रद्धा–ज्ञाननो धर्म कायम रहे छे. पोताना स्वभावथी परिपूर्णता छे तेने भूलीने अज्ञानी
बहारना संयोगमां परिपूर्णतानी भावना करे छे. धर्मीनी द्रष्टिमां पर उपर रुचि नथी, अंतरस्वभावनी ज रुचि
कहेती होय, पण ज्यां सगपण थयुं त्यां फडाक रुचि पलटी जाय छे के आ घर मारुं नहि पण ज्यां सगपण कर्युं छे
ते घर अने ते वर मारां छे. तेम जीव अनादिथी पुण्य–पाप अने परवस्तुने ज पोतानुं घर मानी रह्यो छे, पण
सत्समागमे ज्यां अंतरमां स्वभावनुं भान थयुं त्यां पर प्रत्येनी रुचि एक क्षणमां पलटी जाय छे, अनंतकाळनी
ऊंधी रुचि पलटतां वार लागती नथी.
आत्मानी ओळखाण करवी जोईए; ए ज आ चार गतिना परिभ्रमणथी छूटवानो रस्तो छे.