Atmadharma magazine - Ank 075
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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[श्री वींछीयामां पंचकल्याणिक प्रतिष्ठा महोत्सव दरमियान फागण सुद पांचमना रोज
प्रभुश्रीना जन्मकल्याणिक प्रसंगे पू. गुरुदेवश्रीनुं प्रवचन: प्रवचनसार गा. १प९–१६०]
: ४२: आत्मधर्म: ७५
धर्म
(१) धर्मनी व्याख्या
धर्म एटले शुं? धर्मी जीव कोने कहेवो? लोको कहे छे के अमारे धर्म करवो छे. तो धर्म क्यांथी थाय? ते
वात कहेवाय छे. धर्म शरीरमांथी न थाय, वाणीमांथी न थाय, तेम ज पैसा वगेरेथी पण धर्म थाय नहि; केमके
ते तो बधा आत्माथी भिन्न अचेतन छे, तेमां आत्मानो धर्म रहेलो नथी. वळी हिंसाचोरी वगेरे पापभाव, के
दया–पूजा वगेरे पुण्यभावथी पण धर्म थतो नथी, केमके ते विकारीभाव छे. धर्म करनारो आत्मा छे अने
आत्मानी दशामां ज धर्म थाय छे. ते धर्म क्यांय बहारथी आवतो नथी पण आत्माना ज आश्रये प्रगटे छे.
आत्मानी शुद्ध दशा ते ज धर्म छे. ते धर्मनो करनार आत्मा पोते ज छे. धर्म करनार आत्माथी ज धर्म थाय छे,
पण पैसाथी, शरीरथी, प्रतिमाथी के देव–गुरु–शास्त्रथी धर्म थतो नथी, तेमज ते तरफना शुभरागथी पण धर्म
थतो नथी. धर्म ते आत्मानो निर्मळ वीतरागी शुद्धपर्याय छे. ते पर्याय, पर्यायी एवा आत्मामांथी प्रगटे छे.
आत्मा त्रिकाळ ज्ञानादि निर्मळ गुणोनी खाण छे; श्रवण–मनन द्वारा तेनी ओळखाण करतां आत्मामांथी जे
निर्मळ अंश प्रगटे ते अंशीनो अंश–धर्म छे. आत्मा चैतन्यमूर्ति भगवान अनादि–अनंत एकरूप छे ते अंशी छे
अने तेना आश्रये जे निर्मळ अंश प्रगटे छे ते अंश छे. ते एक अंशमां आखो आत्मा आवी जतो नथी.
(२) धर्मनी क्रिया
पोताना आत्मानुं स्वरूप समज्यां वगर जगत बहारनी क्रियामां जे हा–हो–हरीफाई करे छे तेमां धर्म
नथी. बहारनी जडनी क्रियाथी तो आत्माने पुण्य पाप पण थतां नथी. जो राग अने लोभ वगेरे कषाय मंद करे
तो पुण्य थाय छे अने तीव्र कषाय होय तो पाप थाय छे. बहारनी क्रिया तो आत्मा करतो ज नथी, ते तो जडना
कारणे स्वयं थाय छे. जडनी क्रिया जुदी छे ने राग–द्वेषनी विकारी क्रिया पण जुदी छे, तथा त्रिकाळी शुद्ध आत्मा
ते बंनेथी जुदो छे; तेनी ओळखाणथी जे रागरहित शुद्ध अंश प्रगटे ते धर्म छे.
आत्मानी महत्ता समज्या वगर देव–गुरु–शास्त्रनी महत्ता करे तेथी कोई स्थाने मुक्ति थई जती नथी.
आत्माना महिमाने भूलीने जे परना महिमामां रोकाय छे तेने धर्म थतो नथी.
(३) भगवान श्री कुंदकुंदाचार्यदेव
भगवानश्री कुंदकुंदाचार्यदेव छठ्ठी–सातमी भूमिकाए आत्मानी चारित्रदशामां झूली रह्या छे, क्षणमां
विकल्प तोडीने स्वरूपना अनुभवमां ठरी जाय छे ने सिद्ध भगवान जेवा आनंदने भोगवे छे, बीजी क्षणे वळी
छठ्ठा गुणस्थाने आवतां शुभविकल्प ऊठे छे. आवी दशामां, ‘जगतना जीवो धर्म पामे’ एवो शुभ विकल्प
तेमने ऊठ्यो, त्यां बहारमां जगतना भाग्ये आ समयसार–प्रवचनसारादि शास्त्रोनी रचना थई गई छे. तेमां
आत्मानुं स्वरूप शुं छे ते कहे छे.
(४) शुद्धभाव तथा अशुद्धभावनुं कारण
आत्मा ज्ञायकमूर्ति छे, जे शुभ–अशुभ लागणीओ ऊठे ते अशुद्धता छे, ते आत्मानुं स्वरूप नथी.
आत्मानी अवस्थामां जे शुभ के अशुभ लागणीओ प्रगटे छे ते परद्रव्यना अनुकरणथी प्रगटे छे,
आत्मस्वभावनुं अनुकरण करे तो अशुद्धता थती नथी. अशुद्धतानुं कारण परद्रव्यने अनुसार थती परिणति ज
छे, अने शुद्धतानुं कारण स्वद्रव्यने अनुसार थती परिणति ज छे. दया, दान, पूजा, भक्ति, त्याग वगेरे जेटला
व्यवहारु धर्म क्रियाना परिणाम छे ते बधाय परद्रव्यानुसारी अशुद्धभाव छे, तेना वडे धर्म थतो नथी. माटे
अंतरद्रष्टि वडे आत्मस्वभावनुं निरीक्षण करवुं तेने भगवान सम्यग्दर्शनरूपी धर्म कहे छे; ते सम्यग्दर्शन
वीतरागचारित्रनुं मूळ कारण छे अने वीतरागचारित्र ते मोक्षनुं कारण छे.
परद्रव्यना लक्षे अशुद्ध उपयोग थाय छे ने ते अशुद्ध उपयोगना फळमां पण परद्रव्यनो ज संयोग थाय
छे, पण तेना वडे स्वभावनी एकता थती नथी. अने शुद्ध उपयोगमां परद्रव्यनुं लक्ष होतुं नथी अने