Atmadharma magazine - Ank 075
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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पोष: २४७६ : ४३ :
ते शुद्ध उपयोग वडे परद्रव्यनो संयोग थतो नथी, केम के ते तो आत्मानो स्वभाव छे. जेमांथी अनंता
सिद्धपर्याय प्रगटे एवो हुं चैतन्यनो भंडार छुं, मारी चैतन्य खाणमांथी शुभ–अशुभभावो प्रगटता नथी. –
आवा भानपूर्वक धर्मी जीव परद्रव्यो प्रत्ये मध्यस्थ थईने शुद्धोपयोगनो अभ्यास करे छे.
(प) धर्मी जीवनी भावना
––एवो धर्मी जीव कायम मोक्षसुखना कारणरूप शुद्धोपयोगनी भावना करे छे. अहीं शुद्धोपयोगनी
भावना रागरूप न समजवी पण सर्वे परद्रव्यो प्रत्ये मध्यस्थ थईने आत्मस्वभावनो आश्रय करे छे ते ज
शुद्धोपयोगनी भावना छे. धर्मी जीव परद्रव्यो प्रत्ये मध्यस्थ थईने स्वभावनो आश्रय कई रीते करे छे? ते वात
आ प्रवचनसारनी १६० मी गाथामां करे छे––
णाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं।
कत्ता ण ण करयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं।।
१६०।।
हुं देह नहि, वाणी न, मन नहि; तेमनुं कारण नहि,
कर्ता न, कारयिता न, अनुमंता हुं कर्तानो नहि. १६०.
अर्थ:– हुं देह नथी, मन नथी, तेमज वाणी नथी; तेमनुं कारण नथी, कर्ता नथी, कारयिता (करावनार)
नथी, कर्तानो अनुमोदक नथी.
(६) जन्म – मरणनी बेडी तोडवानी वात
जेम अंक अने अक्षरने जाण्या वगर नामुं लखी शकातुं नथी, तेम आत्माना अंक अने अक्षर एटले
आत्मानुं चैतन्यचिह्न अने आत्मानो अविनाशी स्वभाव, तेने जाण्या विना धर्मनुं नामुं थई शके नहीं. भाई,
आ तो जन्म–मरणनी बेडी तोडवानी वात छे. आ समज्या विना कोई रीते जन्म–मरणनो अंत आवे तेम
नथी. बाकी आ समज्या वगर भगवाननी मणिरत्नोनी प्रतिमा बनावे अने हीराना थाळमां कल्पवृक्षनां
फूलथी पूजा करे, तो पण ते शुभराग छे; आत्मानो स्वभाव ते रागरहित छे, तेने समजे नहि तो संसारना
जन्म–मरण टळे नहि. शुभराग ते धर्मनो पंथ नथी. आत्मानी ओळखाण करीने तेनो आश्रय करवो ते एक ज
धर्मनो पंथ छे. अनंत ज्ञानीओनो एक ज पंथ छे. कह्युं छे के ‘एक होय त्रणकाळमां परमारथनो पथ’ त्रणेकाळे
मोक्षनो मार्ग एक ज प्रकारे छे.
(७) धर्मीनो धर्म शरीर–मन–वाणीथी थतो नथी धर्मी जीवनुं एंधाण शुं? –धर्मी जीवना अंतरमां केवुं
भान होय तेनी आ वात छे. धर्मी जाणे छे के हुं आत्मा ज्ञाता छुं अने शरीरादि बधा परद्रव्यो ते ज्ञेय छे. मारा
ज्ञानस्वरूपथी शरीरादि ज्ञेय पदार्थो जुदां छे एटले हुं शरीर नथी, मन नथी, तेमज वाणी पण हुं नथी. तेथी ते
शरीर–मन–वाणीथी मारो धर्म थतो नथी.––तो हवे शेनाथी धर्म करशो? –आत्मा शरीर–मन–वाणीथी पार,
ज्ञान–दर्शननो पिंड छे, तेमांथी धर्मनी स्फुरणा थाय छे. आत्मा ज्ञानमूर्ति छे ने शरीर–मन–वाणी परज्ञेयो छे;
आत्मा तेमनो जाणनार छे पण तेमनुं कांई आत्मा करी शकतो नथी. शरीरथी, मनथी के वाणीथी आत्मानो धर्म
थाय नहीं. आ शरीर अने भाषा तो परवस्तु छे ने अंदर छातीना भागमां एक सूक्ष्म मन छे, ते जडपुद्गलोनुं
बनेलुं छे, ते मन पण परवस्तु छे. आत्मानुं ते मन तरफ जेटलुं जोडाण थाय तेटलो विकार थाय छे, ते विकार
पण आत्मानुं स्वरूप नथी. मन परद्रव्य छे, ते मनना अवलबने पण आत्मानो धर्म थतो नथी. आत्मानो
ज्ञान–दर्शन स्वभाव मनातीत अने विकल्पातीत छे, तेने ओळखीने तेमां एकाग्र थतां जेटले अंशे मनथी
वेगळो थई जाय तेटलो धर्म छे. आ भाव विना त्रणकाळमां धर्म थतो नथी. आज समजे, काल समजे के बे–
पांच भवे समजे, पण आ समज्या वगर कदी भवथी नीवेडा आवे तेम नथी.
(८) ज्ञान अने ज्ञेयनुं भेद विज्ञान
परथी जुदापणुं जाण्या विना तेना प्रत्ये मध्यस्थता थाय ज नहि ने स्वरूपमां एकाग्रता थाय नहि.
आत्माने सर्व परद्रव्योथी भिन्न जाणीने धर्मी जीव परद्रव्यो प्रत्ये मध्यस्थ थाय छे, ने पोताना स्वभावमां ठरे
छे. धर्मी जाणे छे के वाणी पण हुं नथी, ने ते वाणीथी मारो धर्म थतो नथी. आत्मा वाणीने करतो नथी अने
वाणीथी आत्मा समजातो नथी. शरीर, मन, वाणी हुं नथी, एनो अर्थ ए थयो के शरीर, मन, वाणीनी क्रिया
आत्माने लीधे थती नथी. व्यवहारथी पण आत्मा तेमनुं काई करे–एम नथी. ‘आत्माए शरीरादिनुं कर्युं’ एम
भाषामां आवे, पण वस्तुस्वरूप तेनाथी जुदु छे. दूर रहेलां देव–गुरु–शास्त्र, अने नजीक रहेलां शरीर–मन–
वाणी ते बधां माराथी जुदां छे, हुं जाणनार छुं