आवा भानपूर्वक धर्मी जीव परद्रव्यो प्रत्ये मध्यस्थ थईने शुद्धोपयोगनो अभ्यास करे छे.
आ प्रवचनसारनी १६० मी गाथामां करे छे––
कत्ता ण ण करयिदा अणुमंता णेव कत्तीणं।।
कर्ता न, कारयिता न, अनुमंता हुं कर्तानो नहि. १६०.
आ तो जन्म–मरणनी बेडी तोडवानी वात छे. आ समज्या विना कोई रीते जन्म–मरणनो अंत आवे तेम
नथी. बाकी आ समज्या वगर भगवाननी मणिरत्नोनी प्रतिमा बनावे अने हीराना थाळमां कल्पवृक्षनां
फूलथी पूजा करे, तो पण ते शुभराग छे; आत्मानो स्वभाव ते रागरहित छे, तेने समजे नहि तो संसारना
जन्म–मरण टळे नहि. शुभराग ते धर्मनो पंथ नथी. आत्मानी ओळखाण करीने तेनो आश्रय करवो ते एक ज
धर्मनो पंथ छे. अनंत ज्ञानीओनो एक ज पंथ छे. कह्युं छे के ‘एक होय त्रणकाळमां परमारथनो पथ’ त्रणेकाळे
ज्ञानस्वरूपथी शरीरादि ज्ञेय पदार्थो जुदां छे एटले हुं शरीर नथी, मन नथी, तेमज वाणी पण हुं नथी. तेथी ते
शरीर–मन–वाणीथी मारो धर्म थतो नथी.––तो हवे शेनाथी धर्म करशो? –आत्मा शरीर–मन–वाणीथी पार,
ज्ञान–दर्शननो पिंड छे, तेमांथी धर्मनी स्फुरणा थाय छे. आत्मा ज्ञानमूर्ति छे ने शरीर–मन–वाणी परज्ञेयो छे;
आत्मा तेमनो जाणनार छे पण तेमनुं कांई आत्मा करी शकतो नथी. शरीरथी, मनथी के वाणीथी आत्मानो धर्म
थाय नहीं. आ शरीर अने भाषा तो परवस्तु छे ने अंदर छातीना भागमां एक सूक्ष्म मन छे, ते जडपुद्गलोनुं
बनेलुं छे, ते मन पण परवस्तु छे. आत्मानुं ते मन तरफ जेटलुं जोडाण थाय तेटलो विकार थाय छे, ते विकार
ज्ञान–दर्शन स्वभाव मनातीत अने विकल्पातीत छे, तेने ओळखीने तेमां एकाग्र थतां जेटले अंशे मनथी
वेगळो थई जाय तेटलो धर्म छे. आ भाव विना त्रणकाळमां धर्म थतो नथी. आज समजे, काल समजे के बे–
पांच भवे समजे, पण आ समज्या वगर कदी भवथी नीवेडा आवे तेम नथी.
छे. धर्मी जाणे छे के वाणी पण हुं नथी, ने ते वाणीथी मारो धर्म थतो नथी. आत्मा वाणीने करतो नथी अने
वाणीथी आत्मा समजातो नथी. शरीर, मन, वाणी हुं नथी, एनो अर्थ ए थयो के शरीर, मन, वाणीनी क्रिया
आत्माने लीधे थती नथी. व्यवहारथी पण आत्मा तेमनुं काई करे–एम नथी. ‘आत्माए शरीरादिनुं कर्युं’ एम
भाषामां आवे, पण वस्तुस्वरूप तेनाथी जुदु छे. दूर रहेलां देव–गुरु–शास्त्र, अने नजीक रहेलां शरीर–मन–