Atmadharma magazine - Ank 075
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ४४: आत्मधर्म: ७५
ने ते बधां मारां ज्ञेयो छे. आम ज्ञान अने ज्ञेयने जुदां ओळखीने पोताना ज्ञानस्वभावनी प्रतीति करवी ते धर्म छे.
(९) प्रतिष्ठानो महोत्सव अने आत्मानी समजण
आ तो भगवाननी प्रतिष्ठानो महोत्सव चाले छे. भगवाने जेवो कह्यो तेवो आत्मानो महिमा
ओळखवो ते ज साचो महोत्सव छे.
वसुबिंदु–प्रतिष्ठापाठमां जिनबिंबनी प्रतिष्ठा करावनार श्रावकनुं वर्णन आवे छे. ते श्रावक श्रीगुरु पासे
जईने आज्ञा मांगे छे के हे स्वामी, हुं आ लक्ष्मीने कुलटा स्त्री समान अने अनित्य जाणुं छुं, मारी लक्ष्मीनो राग
घटाडीने हुं तेनो सदुपयोग करुं एवुं कोई कार्य बतावो. श्री अरिहंत भगवानना पंचकल्याणिक करवानी मारी भावना
छे. त्यारे श्रीगुरु कहे छे के–धन्य छे, तुं तारा कुळमां सूर्य समान छे; एम कहीने जिनबिंब प्रतिष्ठा अने पंचकल्याणिक
महोत्सवनी आज्ञा आपे छे. ते महोत्सव अनंत भवोनो नाश करनार छे. अहीं बाह्य क्रियानी के एकला शुभरागनी
वात नथी, पण पोताना ज्ञाताद्रष्टा स्वभावना भानपूर्वक तेमां लीन थईने तृष्णा घटाडतां अनंत अवतारनो नाश
थई जाय छे. परमार्थे तो, आत्मस्वभावनी जे अनंतज्ञानमय संपत्ति छे तेने प्रगट करीने रागनो व्यय करवो ते
महोत्सव छे. महोत्सव करनार पोतानो राग घटाडवा माटे पोतानी संपत्तिनो व्यय करे. खरेखर लक्ष्मीनो व्यय
आत्मा करी शकतो नथी पण राग घटाडवाना उपदेश माटे लक्ष्मीना व्ययनी वात व्यवहारे करी छे.
प्रतिष्ठा करावनार गृहस्थने आचार्यदेव कहे छे के हे भाग्यवान! तारो अवतार सफळ छे के तारा घरे
आवो महान अवसर आव्यो छे. स्वर्ग–मोक्षना कारण रूप तारो सफळ अवतार छे, तारा महाभाग्य छे. मात्र
लक्ष्मी खरचीने हो–हा करी नांखे अथवा मान लेवा माटे लक्ष्मी खरचे तेनी आ वात नथी. पण अंतरमां
रागरहित स्वभावनुं जेने बहुमान छे अने जड लक्ष्मी ते मारी चीज नथी––एम जाणीने जेने तेनुं अभिमान
टळी गयुं छे ते जीव लक्ष्मी उपरनो राग घटाडवा तैयार थयो छे, तेनी वात छे. अंतरमां रागरहित
ज्ञायकस्वभावनुं भान होय तो कल्याण छे. जडनी क्रियानो स्वामी न थाय तेमज शुभरागने धर्म न माने–ए
प्रमाणे ज्यां ज्यां जे जे योग्य होय त्यां त्यां ते ते समजे, अने रागरहित स्वभावनी द्रष्टि राखीने राग
घटाडवाना स्थाने राग घटाडे. अंतरमां आत्माना भान वगर राग घटाडे तो परमार्थमार्गमां तेनी कांई गणतरी
नथी. राग घटाडवानो निषेध नथी परंतु अंतरमां भान होवुं जोईए के पैसा के मंदिर वगेरे जडनी क्रिया तो
आत्मा करी शकतो नथी, अने जे शुभराग थाय तेनाथी पण मने लाभ नथी. स्वभावना भानसहित जेटलो
राग टळ्‌यो तेटलो लाभ छे. पहेलांं आत्मानी साची समजणनो मूळ पायो राखीने पछी बधी वात छे. साची
समजण वगर कोई जीव रागने मंद पाडे तो कांई ज्ञानी ना कहेता नथी, परंतु तेने आत्मानुं अपूर्व कल्याण थाय
नहि ने अनंता जन्म–मरण मटे नहि.
(१०) निश्चय अने व्यवहारनी कथनशैली
आत्मा पोते देह–मन–वाणी नथी, तेमज देह–मन–वाणीनी क्रियानुं कारण पण आत्मा नथी. कोई कहे के
“निश्चयथी तो एम छे के आत्मा परनुं कांई न करी शके, अने व्यवहारथी आत्मा परनुं करे छे,” तो ए वात
पण जुठ्ठी छे. निश्चयथी के व्यवहारथी कोई प्रकारे आत्मा परनुं करी तो शकतो ज नथी. ‘निश्चयथी न करे अने
व्यवहारथी करे’ एम बे प्रकारनुं कथन छे, परंतु वस्तुनुं स्वरूप कांई एवा बे प्रकारनुं नथी. निश्चयनी वातने
ऊभी राखीने–(लक्षमां राखीने) व्यवहारना अर्थ समजवा जोईए. आत्मा शरीरादिनी कोई क्रिया करी शकतो
नथी –एवुं ज वस्तुस्वरूप छे, ते निश्चय छे, अने ‘आत्मा शरीरादिनुं करे छे’ एम शास्त्रमां व्यवहारथी कथन
होय ते मात्र निमित्तनां कथन छे, पण वस्तुस्वरूप नथी; शरीरादिनी क्रिया थती होय ते वखते केवुं निमित्त हतुं
तेनुं ज्ञान कराववा माटे ते व्यवहारनुं कथन छे.
(१) धर्मीना धर्मनुं माप बहारनी क्रियाथी नथी
भगवानना गंधोदकनुं पाणी लईने माथे चडावे अने कहे के हे भगवान! आप संसारथी तर्या छो अने
मने तारजो.–तो शुं भगवान कोईने तारता हशे? के गंधोदकनुं पाणी कोईने तारतुं हशे? ए तो मात्र भगवान
प्रत्येना विनयनी भाषा छे. आत्माना अंतरनुं पाणी उछळ्‌या बगर (–पुरुषार्थ वगर) मुक्ति थाय नहि.
आत्माना अंतरनुं पाणी बहारनी क्रिया उपरथी ओळखाय नहि. जेम हीरानां पाणीनुं माप झवेरी करी शके