: ४६ : आत्मधर्म: ७५
अनादिथी रखडयो छे. तारा आत्माना महिमाने ओळखीने तेनी श्रद्धा कर तो आ जन्म–मरणनी रखडपटी टळे.
भगवाननी वाणीथी पण तारा महिमानो पार पडे तेम नथी. श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के–
जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां,
कही शक्या नहि ते पण श्रीभगवान जो;
तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शुं कहे?
अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो. २०
पोताना अंतरमां ज्ञानद्वारा अनुभवगोचर थाय तेवो आत्मा छे, पण ते अनुभव वाणीथी कहेवामां
आवी शकतो नथी. अने वाणीद्वारा आत्मा समजी शकातो नथी. शास्त्रो कहे छे के बार अंग द्वारा पण मात्र
स्थूळतत्त्वनी वातो आवी छे, सूक्ष्मतत्त्व तो केवळी भगवानना अने ज्ञानीओना अंतरमां रही गयुं छे.
भगवाननी वाणीमांथी गणधरदेवे जेटलुं झील्युं तेनो अनंतमो भाग शास्त्रमां रचायो छे, ने तेमां स्थूळ कथनो
छे. कोई अन्य पदार्थो साथे मेळवीने चैतन्यना महिमानुं पूरुं वर्णन करवानी ताकात वाणीमां नथी. जेम ताजा
घीनो स्वाद चाखवामां आवे छे पण वाणी द्वारा तेनुं पूरुं वर्णन थई शकतुं नथी. तेम चैतन्यनुं परिपूर्ण स्वरूप
ज्ञानमां जणाय छे, पण वाणीमां तेने पूरो कही शके तेवी ताकात नथी; केम के वाणी ते आत्माना स्वभावथी
अन्य छे. जेम कोई मोटो बारिस्टर घी चाखे अने बे वर्षनो बाळक घी चाखे, त्यां ते बन्नेने घीना स्वादनुं ज्ञान
सरखुं छे, पण वाणीद्वारा पूरुं कहेवा कोई समर्थ नथी. तेम चैतन्यमूर्ति आनंदकंद आत्मस्वभावनुं ज्ञान करवामां
केवळीभगवान पूरा छे, –बारिस्टर जेवा छे, ने अविरति सम्यग्द्रष्टिने मति–श्रुतज्ञान छे, ते बाळक जेवा छे,
पण बंनेना ज्ञाननी जात एक छे, आत्माना अनुभवनो स्वाद बंनेने एक जातनो छे. परंतु वाणीद्वारा
आत्मानुं पूरुं वर्णन करवा कोई समर्थ नथी.
(१६) ज्ञायकमूर्ति आत्मा देह – मन – वाणीनो प्रेरक नथी
ज्ञायकमूर्ति आत्मा देह–मन–वाणीनो कर्ता तो नथी, पण देह–मन–वाणीनी जे क्रिया एनी मेळे स्वयं थती होय
तेनो प्रेरक पण आत्मा नथी. आत्मा बोलवानी ईच्छा करे, ते ईच्छा विकार छे, ते ईच्छाने लीधे पण भाषा थती
नथी. शरीर ते पुद्गलनी आहारवर्गणामांथी थाय छे, ने भाषा तो भाषावर्गणामांथी थाय छे, माटे शरीरना आ
मोढाथी के गळाथी पण भाषा बोलाती नथी, केमके भाषा अने शरीर बनेनां पुद्गलो जुदा छे. ज्यां मोढुं पण भाषा
बोलतुं नथी त्यां आत्मा भाषाने करे ए वात तो क्यां रही? देह–मन–वाणी आत्मा साथे एक क्षेत्रे रहेलां छे, ते एक
क्षेत्रे रहेला पुद्गलोनो प्रेरक पण आत्मा नथी, तो पछी पुस्तक, पैसा, लक्ष्मी वगेरे दूरना पदार्थोनी क्रिया आत्मा केम
करी शके? आत्मा तो ज्ञायकमूर्ति छे ने ते बधा पदार्थो ज्ञेय छे. आत्माने अने तेने मात्र ज्ञेय–ज्ञायक संबंध सिवाय
बीजो कोई संबंध नथी. आम समज्या विना बीजो कोई धर्मनो रस्तो नथी; वीतरागनो मार्ग आ ज छे. पहेलांं
सत्समागमे आवुं वस्तुस्वरूप सांभळीने अंतरमां मनन अने विचार करवो ते ज व्यवहार छे, ए सिवाय बहारनी
क्रियामां व्यवहार नथी. शरीरनी क्रिया थाय ते तो जड परमाणुनी अवस्था छे, आत्मा तेनी व्यवस्था करतो नथी.
जडनी अवस्था ते ज तेनी व्यवस्था छे, ते माटे तेने ज्ञाननी जरूर नथी. अज्ञानी जीव परपदार्थोनी व्यवस्था करवानुं
अभिमान करे छे, पण परद्रव्यनो कर्ता के प्रेरक तो ते पण नथी. जे पोताने परनो प्रेरक माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे.
(१७) अनेकांत – धर्म
अज्ञानीओ कहे छे के आ एकांतनिश्चय छे. पण ते अज्ञानीने निश्चय अने व्यवहारनुं भान ज क्यां छे?
अनेकांत कोने कहेवाय ने एकांत कोने कहेवाय तेनी पण तेने खबर नथी. आत्मा पोताना ज्ञाननी अवस्थाने
करे पण परमां कांई न करे–एनुं ज नाम अनेकांत छे; अने ए प्रमाणे समजतां पर पदार्थोनो अहंकार टळीने
पोताना ज्ञानस्वभाव तरफ वळवुं ते धर्म छे.
(१८) धर्मनी अपूर्वता अने तेनी रीत
धर्म अद्भुत, अलौकिक अने अनंतकाळे नहि प्रगटेल एवी अपूर्व वस्तु छे. ते धर्म केम थाय अने
आत्माना जन्म–मरणनो अंत केम आवे तेनी आ वात छे. आ ज्ञेयअधिकार छे, तेमां गर्भितपणे सम्यक्त्व
अधिकार पण आवी जाय छे. धर्मी जीव शरीरादि बधा परज्ञेयोने पोताथी भिन्न परद्रव्य समजीने ते प्रत्ये
अत्यंत मध्यस्थ थईने स्वभाव तरफ वळे छे, तेनुं आ वर्णन छे. हुं ज्ञायक आत्मा शरीर–मन–वाणीनो कर्ता
नथी, तेनो करावनार नथी अने तेना कर्तानो अनुमोद नार पण हुं नथी, हुं तो तेनो जणनार ज छुं अने ए
बधा ज्ञेयो छे. –आम ज्ञेय–ज्ञायकनुं भेदविज्ञान करीने ज्ञानस्वभावनी प्रतीति करवी ते अपूर्व सम्यग्दर्शन, अने
मुक्तिनुं कारण छे. सम्यग्दर्शन समजवा माटे आ अधिकार अमूल्य अने अलौक्कि छे.