Atmadharma magazine - Ank 076
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २००६ : आत्मधर्म : ६९ :
वगर नवमी ग्रैवेयके तुं अनंतवार गयो, मोटो राजा अनंतवार थयो, नारकी अने तिर्यच पण अनंतवार थयो;
अंतरमां नकोर चैतन्यस्वभाव शुं छे ते वात तुं कदी समज्यो नथी, अने होंशपूर्वक कदी ते वात सांभळी पण
नथी. मात्र पुण्यमां ज संतोष मानीने तुं संसारमां रखडी रह्यो छे. जेम थोरना झाडमां टांकणेथी कोतरणी थाय
नहि तेम पुण्य–पापना भावमां चैतन्यना धर्मनी कोतरणी थाय नहि. त्रणेकाळे धर्मनो एक ज मार्ग छे.
‘एक होय त्रण काळमां, परमारथनो पंथ’
जेम त्रणेकाळ गोळ घी ने लोट ए त्रण वस्तुनी ज सुखडी बने छे, तेने बदले कदी पण कांकरा–पाणी ने
धूळ चालता नथी. तेम आत्मामां त्रणेकाळे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ए त्रणनी एकताथी ज मोक्ष थाय छे,
पुण्य वगेरेथी कदी मोक्ष थतो नथी. भगवाननी प्रतिष्ठाना महोत्सव पछीना हरख जमणमां आत्माना पकवान
पीरसाय छे. बदाम–पीस्ता ने लाडवारूप जडनां जमण तो बधा जमाडे छे पण अहीं तो आत्मानां अमृत
पीरसाय छे. तेने चाखे तो मोक्षदशा थया विना रहे नहि.
(८) ज्ञेय–ज्ञायकपणानो निर्दोष संबंध :– शरीर–मन–वाणी परवस्तु छे, तेनी साथे मारे कांई संबंध नथी,
तेथी ‘तेमनी अनुकूळ क्रिया होय तो मने ठीक अने तेमनी प्रतिकूळ क्रिया होय तो मने अठीक’ एम तेमना प्रत्ये
मने कांई पक्षपात नथी. मारा ज्ञाननी उग्रता पासे विकार बळी जाय एवो चैतन्यज्योत मारो स्वभाव छे.–
आम पोताना स्वभावनी ओळखाण करवानी पहेली वात छे. दर्शनशुद्धि वगर ज्ञान, चारित्र के व्रततप
त्रणकाळमां होतां नथी.
धर्मात्मा अंतरमां जाणे छे के हुं एक जाणनार छुं, ने आ शरीरादि बधा पदार्थो मारा ज्ञेयो छे. हुं ज्ञाता,
ने ते ज्ञेय–ए सिवाय बीजो कोई संबंध अमारे नथी. जेम जनेता साथे पुत्रने माता तरीकेना निर्दोष संबंध
सिवाय बीजा कोई आडा व्यवहारनी कल्पना स्वप्ने पण न होय तेम हुं चैतन्यमूर्ति आत्मा ज्ञायक छुं ने पदार्थो
ज्ञेय छे, ज्ञेय–ज्ञायकरूप निर्दोष संबंध सिवाय अन्य कोई संबंध मारे परद्रव्य साथे स्वप्ने पण नथी. मारे पर
साथे मात्र जाणवा पूरतो ज संबंध छे. जेम अंधारामां कोई माणस कोईने पोतानी स्त्री समजीने विषयबुद्धिथी
तेनी पासे गयो, पण ज्यां प्रकाशमां तेनुं मोढुं जोतां खबर पडी के आ तो मारी माता छे. त्यां फडाक तेनी वृत्ति
पलटी जाय छे के अरे आ तो मारी जनेता! जनेतानी ओळखाण थई के तरत ज विकार वृत्ति पलटी अने
माता–पुत्रना संबंध तरीकेनी निर्दोष वृत्ति जागृत थई. तेम जीव अज्ञान भावे परवस्तुने पोतानी मानीने तेने
ईष्ट–अनिष्ट माने छे अने तेना कर्ता–भोक्ताना भाव करीने विकारपणे परिणमे छे. पण ज्यां ज्ञान प्रकाश थतां
भान थयुं के अहो, मारो ज्ञायक स्वभाव छे, ने पदार्थोनो ज्ञेयस्वभाव छे. एम निर्दोष ज्ञेय–ज्ञायक संबंधनुं
भान थतां ज धर्मीने विकारभाव टळीने निर्दोष ज्ञायकभाव प्रगट थाय छे. अस्थिरताना राग–द्वेष थता होय
छतां धर्मीने अंतरमां रुचि पलटी गई छे के हुं चैतन्यस्वरूप बधानो जाणनार छुं, बीजा पदार्थो साथे ज्ञेय–
ज्ञायक स्वभाव संबंध सिवाय बीजो कांई संबंध मारे नथी.
(९) परम सत्य :– आ साधारण एक व्यक्तिनी वात नथी, पण वस्तुना स्वभावनी वात छे. त्रणकाळ
त्रणलोकना केवळी भगवंतोनी आ वात छे, सर्वज्ञभगवाननी रजीस्टर थई गयेली छे. अनंता तीर्थंकरो आ
वात कही गया छे, वर्तमानमां महाविदेहक्षेत्रमां सीमंधरादि तीर्थंकर भगवंतो आ वात कही रह्या छे, गणधरो
झीले छे, ईन्द्रो आदरे छे, चक्रवर्ती वगेरे महान पुरुषो जेने सेवे छे–एवी आ ज परम सत्य वात छे. त्रणकाळ
त्रणलोकमां आ वात फरे तेम नथी. जगतने आ वात मान्ये ज छूटको छे.
(१०) भवभ्रमणना नाश माटेनी धर्मात्मानी क्रिया :– अहो, मारा ज्ञायकभावथी भिन्न एवा शरीर मन
वाणीने पण हुं परद्रव्यपणे समजुं छुं, तो जे तद्न जुदां छे एवा दूरवर्ती देव–गुरु–शास्त्रे के स्त्री पुत्र–लक्ष्मी
वगेरे पदार्थो तो क्यांय रही गया. शरीरादि मारां एम शास्त्रो निमित्तथी भले कहे, पण मने तेनो पक्षपात
नथी एटले के व्यवहारनो पक्ष नथी. हुं ते बधा प्रत्ये मध्यस्थ छुं, हुं ज्ञायक छुं ने ते पदार्थो मने ज्ञेय तरीके ज
छे. तेथी हुं ते पदार्थोनो पक्षपात छोडीने मारा ज्ञायक स्वभावनो आश्रय करुं छुं. ज्ञेय पदार्थोनो आश्रय मने
नथी, अंतरमां ज्ञायक स्वभावनो ज आश्रय छे. आवी श्रद्धा, ज्ञान अने एकाग्रता ते ज धर्मात्मानी क्रिया छे, ने
तेनावडे ज भवभ्रमणनो नाश थाय छे.
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