Atmadharma magazine - Ank 076
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ६८ : आत्मधर्म : महा : २००६ :
गृहस्थ पण पोताना आत्मामां सिद्धपणुं स्थापीने आ काळे एकावतारी के बे–त्रण भवे मुक्त जनार थई जाय
छे. आचार्यदेव तो बधा आत्माने सिद्धपणे ज भाळे छे, केमके पोताने सिद्धपणानी रुचि छे ने अल्पकाळे सिद्ध
थवुं छे. जेने ज्यां रुचि होय ते त्यां भाग पाडतो नथी, पण अखंड माने छे. जेम बापनी मूडी एक लाख
रूपियानी होय अने तेने चार पुत्रो होय, तो त्यां ते दरेक पुत्र कहे छे के ‘अमारी पासे एक लाखनी मूडी छे.’
त्यां चार भागला पाडीने लक्षमां लेतो नथी. तेम ज पांचमी पुत्री होय तो ते पण कहे के ‘अमारी पासे एक
लाखनी मूडी छे.’ अंदरमां पूर्ण स्वभावनी मूडी छे तेनी रुचि नथी तेथी ममतावडे बहारमां पूर्णता माने छे.
अंदरमां स्वभावनी पूर्णतानुं लक्ष नथी तेथी बहारमां पूर्णता मानीने तेनाथी पोतानी मोटप माने छे. पण जो
क्षणमां ते रुचिनी गूलांट मारीने स्वतरफ वळे तो स्वभावनी पूर्णताने माने अने संयोगनो पोतामां अभाव
माने. जेम कुंवारी बालिकानुं सगपण करतां ज तेनो अभिप्राय फरी जाय छे के ज्यां सगपण थयुं ते घर ने ते
वर मारां, आ घर के आ घरनी मूडी मारी नथी. तेम धर्मी जीवे जयां अंतर स्वभाव साथे सगपण बांध्युं त्यां
तेने अंतरस्वभावनी रुचि थतां बहारनी रुचि टळी जाय छे. राग अने संयोग होवा छतां ते मारां नथी, हुं
सिद्धसमान छुं–आम धर्मी जीवनी द्रष्टि पलटी जाय छे. आवी ओळखाण अने प्रतीत करवी ते ज सिद्धिनो पंथ
छे. आ सिवाय बीजा कोई उपायथी भवनो आरो आवे तेम नथी.
अहो! जगतना जीवोने अनंतकाळथी अपरिचित एवो आ सिद्धिनो पंथ, ते एम ने एम झट क्यांथी
समजाय? पोतानी उग्र पात्रता होय तो तो क्षणमात्रमां समजाई जाय तेम छे, पण जीवोनी पात्रतानी कचाशने
लीधे समजतां वार लागे छे. मार्गनी तो तद्न सरळता छे, पण अनंतकाळथी अपरिचित मार्ग सत्समागम
वगर कयांथी समजाय? हजी सत्य मार्ग शुं छे ते वात सांभळवा पण न मळती होय ते जीवो क्यांथी समजे?
सत्समागमे रुचि फेरवे तो एक क्षणमां फरी जाय छे. पहेलेथी ज आत्मामां सिद्धपणुं स्वीकार्या वगर सिद्ध थवा
तरफनो पुरुषार्थ ऊपडे नहि. ‘हुं पामर छुं, हुं रागी छुं’ एम गोख्या करे तो सिद्धदशा तरफनो पुरुषार्थ कोना
जोर ऊपडशे? जेम कोईने बे कलाकमां चार गाउ दूर जवुं होय तो तेटली झडपथी पग ऊपाडे तेम, आत्माने
पूरो सिद्ध समान स्वभाव छे तेने द्रष्टिमां ल्ये तो पूर्ण सिद्धदशा तरफनो पुरुषार्थ ऊपाडे. पण ‘हुं विकारी छुं,
रागथी मने लाभ थाय छे’ एम प्रथमथी ज वकारमां अटकतो अटकतो चाले तेने पूर्णता तरफनो पुरुषार्थ
ऊपडे नहि, पण ते तो रागमां ज अटकी जाय.
(६) ऊर्ध्वगतिनी श्रेणी अने अधोगतिनी श्रेणी
धर्मी जीवने आत्मानी केवी ओळखाण होय छे? तेनी आ वात छे. शरीर जड छे, मन जड छे, वाणी जड
छे, –ए त्रणे हुं नथी, हुं तो चैतन्य स्वरूप आत्मा छुं. भव अने भवनुं कारण विकार ते मारा स्वरूपमां नथी. –
आवा भेदज्ञानथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे, अने ते मोक्षनो मार्ग छे. तथा ‘हुं शरीरादिनां कार्य करी शकुं,
विकार मारुं स्वरूप छे’ आवी बुद्धि ते अधर्म छे ने ते संसारनो मार्ग छे. जेम घरमां मेडी उपर चडवानो दादरो
अने भोंयरामां नीचे ऊतरवानो दादरो जुदो जुदो होय छे. तेम आत्मामां ऊर्ध्व चडवानो एटले के सिद्धदशानो
मार्ग जुदो छे ने अधोगतिनो एटले के स्वर्ग–नरकादि चारगतिमां भ्रमणनो मार्ग जुदो छे; अंतरमां स्वद्रव्य
तरफनी श्रेणी ते ऊर्ध्वगति एटले मोक्षनो उपाय छे अने पराश्रयबुद्धिथी पुण्य–पापना भाव ते अधोगतिनी
श्रेणी एटलेे स्वर्ग–नरकनो मार्ग छे. अज्ञानीओ स्वर्गने ऊर्ध्व गति माने छे. पण ज्ञानी तो कहे छे के सिद्धगति
ते ज ऊर्ध्वगति छे, ए सिवाय स्वर्गादि चारे गतिना भव ते अधोगति छे. धर्मी जीव जाणे छे हुं जाणनार–
देखनार, साक्षी चैतन्य छुं, आ शरीर–मन–वाणी मारां नथी–आम स्वद्रव्यनुं अवलंबन ते ऊर्ध्व गतिनी श्रेणी
छे. आ समज्या वगर संसार परिभ्रमणनी होळी शांत थाय तेम नथी. पहेलांं तो संसारनी रुचि टळीने
स्वभाव तरफ रुचि पलटी जवी जोईए. रुचि अनुयायी वीर्य छे एटले के ज्यां रुचि होय ते तरफ पुरुषार्थ
वळ्‌या करे छे. स्वभावनी रुचि थतां वारंवार तेमां पुरुषार्थ वळ्‌या करे ते चारित्रनुं कारण छे.
(७) भाई तुं होंशथी सांभळ!
भाई, तुं सांभळ रे सांभळ! अंतरमां आ वातनी कांईक अपूर्वता लावीने सांभळ! भवभ्रमणमां आ
वात अनंतकाळे सांभळवा मळे तेम नथी. आ वात समज्या