करवी, चोरी करवी वगेरेमां आनंद माने छे, अहो! तारा पापनी केटली गुरुता छे? एक वार एक भरवाडण
घी वेचीने तेना त्रण रूपिया लईने जती हती. रस्तामां कोई लूंटारो मळ्यो अने ते रूपिया माग्या, भरवाडण
बाई ते त्रण रूपिया मोढामां नांखीने पेटमां उतारी गई. त्यां लूंटाराए तेनुं पेट चीरीने ते त्रण रूपिया काढी
लीधा. अहो, जुओ! मनुष्य हिंसा करतां जराय अचकातो नथी. त्रण रूपिया जेटली पण माणसनी किंमत न
रही. केटलां नीच परिणाम! एनुं नाम पापनी गुरुता छे. ए वखते साधारण माणसने स्वप्नेय एम न लागे
के आ जीव परमात्मा थशे. पण ते क्रूर परिणामो क्षणिक छे, ते पलटीने बीजी क्षणे लघुता प्रगट करी शके छे.
रहेतो. आचार्यदेव कहे छे के एवा क्रूर जीवने तेनुं परमात्म स्वरूप ओळखवुं कठण छे. मलिन परिणाम कृत्रिम
छे, ते कृत्रिम परिणाम वखते अंदर चैतन्य भगवान अकृत्रिम पड्यो छे, ते समजवुं जगतने कठण पडे छे.
लोको क्षणिक परिणामने ज भाळे छे पण अंदरनां ध्रुव पवित्र स्वभावने समजता नथी. जेम खीले बांधेली
भेंस ऊछाळा मारती होय, त्यां लोको भेंसनुं अने दोरडानुं जोर भाळे छे. पण खरेखर त्यां भेंसनुं के दोरडानुं
जोर नथी परंतु भेंस कूदाकूद करवा छतां वच्चे खीलो धरबाईने पड्यो छे, ते जराय हलतो नथी, तेनुं जोर छे.
लोको ब्राह्यक्रियाने जोनारा होवाथी भेंसना ऊछाळानुं जोर देखे छे पण खीलो चाल्या वगरनो स्थिर छे तेनुं
जोर देखता नथी, तेम चिदानंद भगवान आत्माना पर्यायमां क्षणिक विकार थाय छे तेनुं जोर नथी, पण
क्षणिक विकार थवा छतां स्वरूप आत्मस्वभाव त्रिकाळ एवो ने एवो रहे छे तेनुं जोर छे. गमे तेवो विकार
भाव तो क्षणिक छे, बीजी ज क्षणे ते नाश पामी जाय छे, अने शाश्वत आत्मस्वभाव छे ते क्षणिक विकार
भेगो नाश थई जतो नथी पण ध्रुव एकरूप टकी रहे छे, तेनो ज महिमा छे, ने तेना ज जोरे पर्यायमां
निर्मळता प्रगटेे छे. ते स्वभावनी समजण जगतना जीवोने गहन छे. लोको पर्याय बुद्धिथी जोनारा छे. तेओ
क्षणिक पर्यायना पुण्यपापने ज भाळे छे पण पुण्य–पाप रहित नित्य एकरूप ज्ञायक स्वभाव छे तेने भाळता
नथी.
मिथ्यात्वादि पापनो नाश कर्यो ते जीवो पापमां हळवा एटले के ‘लघु’ छे. अंतरमां आत्मानी समजण करीने
तेमां एकाग्र थतां केवळज्ञान थाय छे. आवा आत्मानी समजण पण जगतना जीवोने दुर्लभ छे, अने समजण
वगर ................. क्यांथी प्रगटे? सत्समागमे चैतन्यनी समजण करवी ते ज धर्मनो उपाय छे.
आत्मानो परिपूर्ण ज्ञानस्वभाव छे, पर्यायमां क्षणिक विकार थवा छतां ते वखते य मूळ अविकारी स्वभाव
नाश थई गयो नथी. शरीरथी जुदो, आत्माने अरूपी निर्मळ ज्ञान स्वभाव ईन्द्रियोथी जणाय नहि, पण
अंदरमां स्वभावनुं ज्ञान करे के हुं तो बधाने जाणुं छुं ने आ शरीर तो कांई जाणतुं नथी, राग रागने जाणतो
नथी, रागनो पण हुं जाणनार छुं, माटे जाणनार ज हुं छुं.–एम स्वभावनी द्रष्टिथी समजे तो ज आत्मानो
स्वभाव जणाय.
अग्नि उपर तेने ढोळी नांखो तो ते अग्निने ओलवी नांखे छे. तेम आ शांत मूर्ति चैतन्यस्वभावी आत्मा
अनादिकाळथी अज्ञान भावमां बळ्यो–जळ्यो छे, ने आकुळतामां तपी रह्यो छे, पण तेनो ज्ञानस्वभाव शीतळ–
शांत छे. विकार वखते य विकारनो नाश करवानो स्वभाव छे. जो एक क्षण पण ते