Atmadharma magazine - Ank 076
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ६२ : आत्मधर्म : महा : २००६ :
जी त्त्र्
[कुवाडवा गामां फागण वद १३ ना रोज पू. गुरुदेवश्रीए करेल भरतेशवैभवना वांचनमांथी]
श्री ऋषभदेव भगवानना पुत्र श्री भरत चक्रवर्ती एक वार उपवास करीने बेठा छे अने राणीओ साथे
तत्त्वचर्चा करे छे. त्यां राणी पूछे छे के संसारमां दुःख छे ने अविनाशी सिद्धपदमां सुख छे, ते सुखनो उपाय शुं
छे? आ प्रश्न पूछवामां राणीओने एटलुं भान छे के आत्मा सिवाय शरीरादिमां क्यांय सुख नथी. अने एवुं
अविनाशी सुख मेळववानी रुचि थई छे. तेथी प्रेमथी प्रश्न करे छे. अहीं पति–पत्नी तरीकेनो प्रेम नथी. पण
धर्मात्मा तरीकेनो प्रेम छे.
भरतजी जवाब आपे छे के आत्मामांथी आवरणोनो नाश करवाथी ते सुख प्रगट थाय छे. आत्मामां
राग–द्वेष–मोहरूप जे भाव आवरण छे, तेनो नाश करतां सिद्ध सुख प्रगट थाय छे.
वळी राणी पूछे छे के–स्वामी! ए आवरणनो नाश करवानो शुं उपाय छे ते पण अमने बतावो.
भरतजी जवाब आपे छे के परमात्मानी भक्तिथी आवरणनो क्षय थाय छे. परमात्मानी भक्ति बे
प्रकारनी छे. एक भेद भक्ति अने बीजी अभेद भक्ति. तेमां अभेद भक्ति ते आवरणना नाशनुं मूळ कारण
छे. राग–द्वेष रहित परिपूर्ण ज्ञानस्वरूप परमात्मानुं स्वरूप जाणीने तेमनी भक्ति–बहुमान करवुं ते भेद भक्ति
छे. ने पोताना आत्माने परिपूर्ण निर्मळ परमात्म स्वरूपे जाणीने तेनी श्रद्धा–ज्ञान करीने तेमां लीन थवुं ते
अभेद भक्ति छे. अभेद भक्ति ते निश्चय भक्ति छे, ते परमार्थ भक्ति छे. ते खरी भक्ति छे, ते पोताना
आत्मानी भक्ति छे.
पहेलांं तो भेद भक्ति होय छे, परमात्माना स्वरूपनो विचार करवो ते भेद भक्ति छे; एवी भेद
भक्तिने जाणीने पछी एवो ज परमात्मा हुं छुं, आत्मामां ज परमात्मा थवानी ताकात छे–एम पोताना
आत्माने ओळखीने ठरे तेनुं नाम परमार्थ भक्ति अथवा अभेद भक्ति छे. अभेद आत्मा तरफ वळवाना
लक्षपूर्वक भेद भक्ति होय तो तेने व्यवहार कहेवाय छे.
विकार अने आवरणोनो नाश करवा माटे आत्मामां अभेदभक्तिपूर्वक आराधनानी ज जरूरियात छे,
अभेदभक्तिथी ज सिद्ध पद पमाय छे.
जुओ, पति–पत्नी वच्चे आवी तत्त्वचर्चा चाले छे. स्त्री छे छतां तत्त्वनी चर्चा करे छे. ‘हुं स्त्री छुं माटे
मने नहि समजाय! एवी मान्यता नथी. पत्नी पोताना पतिने आवा धर्म–प्रश्नो पूछे छे. अमे स्त्री नथी पण
अमे तो आत्मा छीए–एवुं भान छे.
वळी बीजी राणी पूछे छे के : स्वामी! परमात्मानी भेदभक्तिनो तो अमने अभ्यास छे, पण अंतरमां
परमात्मानी अभेद भक्तिमां चित्त लागतुं नथी! व्यवहारनो तो अभ्यास छे, पण अंतरमां आत्मा
ज्ञानदर्शननो सागर छे तेनी श्रद्धा–ज्ञानमां चित्त चोंटतुं नथी, तो अभेद आत्मानी भक्ति केम थाय? तेनो
उपाय कहो.
भरतजी तेनो उत्तर आपे छे : जेम तमे वीतरागी चैतन्यमूर्ति भगवानना प्रतिबिंबने सामे राखीने
तेनी भक्ति करो छो, तेवी रीते आत्माने ज तनुवातवलयमां बिराजमान सिद्ध समान चिंतवशो तो अभेद
आत्मानी भक्तिमां चित्त लागशे. वातवलयमां जेवा सिद्ध प्रभु बिराजे छे. तेवो ज आ आत्मा अत्यारे शरीर
प्रमाणे बिराजे छे भरत अने तेनी राणीओने राग छे ने गृहस्थपणामां छे, पण अंदरमां रटण तो आ ज छे.
आत्मानी भक्तिथी मुक्ति थाय छे ते भक्तिनुं वर्णन चाले छे. शरीरमां रहेलो होवा छतां आत्मा
शरीरथी जुदो छे. आम समजे तो शरीरादि परमां एकत्वबुद्धि छूटे ने आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान थाय, ते अभेद
भक्ति छे. भेद भक्तिनुं वर्णन टूंकुं करी नाख्युं, ने अभेद भक्तिनुं वर्णन विशेष करे छे. भेद भक्तिने तो जगत
जाणे छे पण आत्मानी अभेद भक्तिने जाणता नथी. धर्म आत्माथी करवो छे. तो आत्मा केवो छे ते जाण्यां
वगर धर्म थाय नहि.
आत्मा ज्ञानमूर्ति, सिद्ध जेवो छे, शरीरथी जुदो छे, पुरुषाकार छे. आत्मानो आकार अरूपी पुरुषाकार