Atmadharma magazine - Ank 076
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: महा : २००६ : आत्मधर्म : ६३ :
छे. अने चिन्मय छे, चिन्मय एटले ज्ञानमय छे.–आवा आत्माने जाणीने तेमां ठरे ते अभेद भक्ति छे.
जिनबिंबनी भक्ति ते भेद भक्ति छे, तेमां शुभराग छे. अने आत्माने उपर कह्यो तेवो जाणे तो
अंतरमां पोताना आत्मानुं ज परमात्मा तरीके दर्शन थाय छे. संसारमां–गृहस्थपणे पण आवुं आत्मदर्शन थई
शके छे. एनुं नाम अभेद भक्ति छे.
भरत महाराजा चक्रवर्ती छे, ऋषभदेव भगवानना पुत्र छे, आ भवे मोक्ष जवाना छे, छ खंडना
राजमां रह्या होवा छतां क्यारेक क्यारेक अंतरमां आत्मानो अनुभव करी ल्ये छे. ते भरतजी अत्यारे पोतानी
राणीओने आत्माना अनुभवनो उपाय समजावी रह्या छे.
आत्मा ज्ञानमय छे, परनुुं कांई करवानो ज्ञाननो स्वभाव नथी, अने राग–द्वेष करवानो पण ज्ञाननो
स्वभाव नथी. एवा स्वभावने ओळखे तो अंदरमां आत्मानुं दर्शन थाय. जुओ, स्त्रीने पण आत्मदर्शन थाय छे.
एक मूर्ख दरबार एवो हतो के कोईए तेने पूछयुं के ‘दरबार! तमारे राणीओ केटली?’ दरबारे कह्युं के–
‘कामदारने पूछो, मने खबर नथी.’ तेम अज्ञानी मूर्ख जीव कहे छे के आत्मानुं स्वरूप केवुं छे तेनी आपणने
खबर नथी, शास्त्रने पूछो. अर्ही कहे छे के आत्मा रागरहित ज्ञानमय छे–एम जाणीने अंतरमां जुए तो
आत्मानो अनुभव थाय, ने पोताना अनुभवनी पोताने खबर पडे छे.
जेम स्फटिकनी शुद्ध प्रतिमा उपर धूळ होवा छतां ते देखाय छे, तेम चैतन्यमूर्ति आत्मा स्फटिक जेवो
निर्मळ छे, उपर कर्मनी धूळ होवा छतां ते देखाय छे. आत्मा जाणनार स्वभावरूपी चैतन्यनी प्रतिमा छे, अने
कर्म तथा शरीरनी धूळथी ते जुदो रहेलो छे–एम जाणीने जो अनुभव करे तो स्फटिक प्रतिमानी जेम आत्मानो
अनुभव थाय छे. आत्मा बहारनी क्रिया तो करी शकतो नथी पण राग–द्वेष थाय ते करवानो पण आत्मानो
स्वभाव नथी. पुरुषाकार ज्ञानमूर्ति आत्मा छे, तेने ओळखे तो आत्मानी अभेद भक्ति थाय छे.
स्फटिकनी प्रतिमानी चारे तरफ धूळ होवा छतां ते धूळ स्फटिकमां गरी जती नथी, तेम शरीर अने कर्मो
रूपी धूळनी वच्चे ज्ञानमूर्ति आत्मा रह्यो होवा छतां आत्मामां ते कोई प्रवेशी गया नथी. जो एवा आत्माने
जाणीने अंतरमां तेने देखवानो प्रयत्न करे तो ते देखाय छे. स्फटिकनी प्रतिमा तो आंखथी देखाय छे, हाथथी
स्पर्शाय छे–ए रीते ईन्द्रियो द्वारा ते जणाय छे, पण आत्मा ज्ञानानंदमूर्ति छे ते ईन्द्रियो द्वारा देखातो नथी पण
अतीन्द्रिय ज्ञानदर्शन रूपी चक्षुथी ते जणाय छे. शरीर अने आत्माने एक माने तो शरीरथी भिन्न आत्मा
देखाय नहि ने धर्म थाय नहि. जोनारो तो आत्मा छे, पण जो ते ईन्द्रियो द्वारा जुए तो बहारना जड पदार्थो
देखाय छे, आत्मा जणातो नथी. अंतरमां ज्ञान चक्षुथी आत्माने जोवानो प्रयत्न करे तो ते देखाय छे. अने
एवा आत्माने देखवो ने अनुभववो ते अभेद भक्ति छे, ते वडे ज आत्मामांथी आवरणनो क्षय थईने सिद्ध
सुख प्राप्त थाय छे. आम भरत महाराजा पोतानी राणीओने समजावे छे.
स्फटिक तो जड छे, आ चैतन्यमूर्ति आत्मा तेनाथी तद्न विलक्षण छे. ते बहारनी आंखथी देखाशे नहि;
ज्ञान चक्षुथी तेने जोवो पडशे. निर्मळ आकाशनी जेम आत्माने ज्ञाननी मूर्ति समजीने अंतरमां तेनुं ध्यान करो.
संसारनो मोह घणो खराब छे, पर पदार्थो उपरना मोहने लीधे ज आत्मा परमात्मानी अभेद भक्तिथी भ्रष्ट
थयो छे. तेथी सौथी पहेलांं पर वस्तुनी ममता रूप आशाना बंधनने छोडो, परवस्तुनी तीव्र आसक्ति छोडीने
पछी एकांतवासमां जईने अंतरमां चैतन्यमूर्ति आत्मानुं ध्यान करो. एम करवाथी अभेदभक्ति थशे, ने मुक्ति
थशे. आम भरतजीए पोतानी राणीने उत्तर आप्यो.
[अनुसंधान पाना नं. ८० थी]
तुरतमां ज शरू थशे. जेमने भेदविज्ञानसार मळी गयुं हशे तेमने एकलुं ‘सम्यग्दर्शन’ पुस्तक पोस्ट
द्वारा मोकलाशे. आ रवानगी महा वद अमास सुधीमां पूरी थशे. तेथी महा वद अमास सुधीमां तमाम ग्राहकोने
उपरना बे भेटपुस्तको मळी जशे.
त्रीजुं भेट पुस्तक ‘चिद्दविलास’ [गुजराती] छे, ते हजी छपायुं नथी. ते छपाईने तैयार थतां
आत्मधर्मना ग्राहकोने पहोंचाडवानी व्यवस्था करवामां आवशे. तेमज आत्मधर्ममां ते संबंधी सूचना अपाशे.