Atmadharma magazine - Ank 076
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ६४ : आत्मधर्म : महा : २००६ :
[कवडव : फगण वद १४]
प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव भगवानना पुत्र भरत चक्रवर्ती छे, ते संसारमां रह्या छतां धर्मात्मा हता;
तेमने ९६००० राणीओ हती. तेओ भरतजीने धर्मना प्रश्नो पूछे छे ने भरतजी जवाब आपे छे, तेनो आ
अधिकार चाले छे.
राणीए प्रश्न पूछयो छे के आत्मानो अनुभव केवी रीते थाय? तेने भरतजी उत्तर आपे छे के आत्मा
शरीरथी भिन्न छे, आत्माने भूलीने पर पदार्थोमां ममता करीने जे तीव्र लोभ करे छे ते बूरो छे, ते लोभने
मंद पाडीने एकांतमां जईने आत्मानुं चिंतवन करवुं जोईए. पहेलांं जगतनी तीव्र ममता घटाडीने सत्समागमे
आत्मानुं स्वरूप सांभळे, पछी एकांतमां जईने अंतरमां तेना ध्याननो प्रयत्न करवो जोईए. अनंतकाळथी
आत्माना ज्ञाननो प्रयत्न कर्यो नथी, तेथी एक ज दिवसना प्रयत्नथी ते जणातो नथी, तेने माटे वारंवार
अभ्यास करवो जोईए. बहारमां पैसा वगेरेनी प्राप्ति थवामां आत्मानो पुरुषार्थ नथी, पण आत्मानुं स्वरूप
शुं छे ते ओळखवामां आत्मानो पुरुषार्थ छे. अभ्यास करतां करतां क्रमे क्रमे आत्मानो अनुभव थाय छे.
आगळ जतां राणी पूछे छे के आत्माना अनुभव माटे कांईक पुण्य करवानुं कहोने? शुं भगवाननी
भक्ति, दान वगेरे शुभराग करतां करतां आत्मानो अनुभव न थाय? त्यारे भरतजी उत्तर आपे छे के जेम
अरीसा उपर चंदननो लेप करो तो ते पण अरीसाने आवरणनुं ज कारण छे, तेम आत्मामां शुभरागथी पण
आवरण थाय छे. पहेलांं भेद भक्तिनो शुभराग थाय छे पण ते शुभ तेम ज अशुभ बंने रहित आत्मानुं
स्वरूप छे तेनी ओळखाणनो निरंतर प्रयत्न करवो जोईए.
भरतजी पोतानी स्त्री प्रत्ये कहे छे के– हे सुखकांक्षिणी! भेद भक्तिथी पुण्य थाय छे ने तेनाथी स्वर्गादि
पद मळे छे, पण आत्मानुं सुख तेनाथी मळतुं नथी. रागरहित ज्ञानस्वरूपी आत्मानी श्रद्धा–ज्ञान करीने तेना
ध्यानमां एकाग्र थवुं ते अभेद भक्ति छे, ने ते अभेद भक्ति ज मोक्षसुखनुं कारण छे. अभेद भक्ति ज मोक्षनुं
कारण छे ने भेद भक्ति बंधनुं कारण छे,–आ वात भव्य सज्जन पुरुषो स्वीकारे छे, पण जेनुं होनहार खराब
छे एवो अभव्य जीव तेने स्वीकारतो नथी.
अहो, आ देह तो क्षणिक छे, ते नाशवान छे, ने हुं अविनाशी छुं–एम आत्मानी ओळखाण अने
ध्याननी रुचि भव्य जीवोने ज थाय छे, अभव्य जीवने आत्माना ध्याननी रुचि थती नथी. संसारमां रहेला
धर्मात्मा पति–पत्नी पण आवी धर्मचर्चा वारंवार करे छे.
विद्यामणि नामनी स्त्री भक्तिपूर्वक भरतजीने पूछे छे के–स्वामीनाथ! शरीर अने रागथी जुदां
आत्मस्वभावनुं ज्ञान–ध्यान करवारूप अभेद भक्ति पुरुषोने ज थई शके छे के अमने स्त्रीओने पण थाय?
त्यारे भरत महाराजा उत्तर आपे छे : ते अभेद भक्तिना बे प्रकार छे– (१) शुक्लध्यान (२)
धर्मध्यान. जो के कहेवामां तो आ बंने जुदां लागे छे. पण ते बंनेना अवलंबन रूप आत्मा एक ज छे तेथी ते
एक ज जातना छे. आत्मस्वभावना भानवडे धर्मध्यान स्त्रीने पण थई शके छे. स्त्रीने शुक्लध्यान थई शकतुं
नथी. धर्मध्यान करतां शुक्लध्यान विशेष निर्मळ छे.
स्त्री के पुरुष ए बंनेनो आत्मा तो एक ज प्रकारनो छे, बहारना देहना फेरे अंदरना आत्मामां फेर
पडतो नथी. ध्याननुं अवलंबन तो देहथी भिन्न आत्मा छे, शरीरना अवलंबने ध्यान थतुं नथी. स्त्रीने पण
आत्माना अवलंबने धर्म ध्यान थाय छे. आत्मा शरीरथी जुदो छे, ने अंदरमां पुण्य–पापनी लागणी थाय ते
पण आत्माना स्वरूपथी जुदी छे बधा जीवोने धर्म माटे तो आत्मानुं ज अवलंबन छे. एवा आत्मानुं अवलंबन
करीने ध्यान करे तो स्त्रीने पण आत्मानो अनुभव थाय छे. आत्मा आनंदस्वरूप छे तेनी ओळखाण करीने तेना
ध्यानमां एकाग्र थतां परने भूली जवुं तेनुं नाम भलुं ध्यान छे, अने परना विचारमां एकाग्र थतां आनंदमूर्ति
आत्माने भूली जवो ते भूंडुं ध्यान छे. हुं शरीरथी जुदो छुं, पुण्य अने पापनी शुभ–अशुभ लागणी पण कृत्रिम
छे, ते नवी नवी थाय छे, ने तेनो जाणनार–देखनार ज्ञानस्वरूप हुं त्रिकाळ छुं–एम आत्माना महिमामां एकाग्र
थतां परवस्तुना विचारने भूली जवा ते भलुं ध्यान छे. ने आत्मानो महिमा भूलीने परना विचारमां एकाग्र
थवुं ते भूंडुं ध्यान छे. आत्माने ओळखीने तेमां एकाग्र थाय तेटली शांति प्रगटे छे. सत्समागमे आत्मानी
ओळखाण अने ध्यान करवानो सतत प्रयत्न करे तो आ काळे पण आत्मानुं ध्यान थाय छे.