होय अने मति–श्रुत–अवधि ए त्रण ज्ञाननो उघाड होय अने कोईने छठ्ठुं गुणस्थान होय छतां मति–श्रुत ए बे
ज ज्ञान होय, त्यां उघाडनी अपेक्षाए चोथा गुणस्थाने वधारे ज्ञान छे पण ज्ञानमां स्वरूपनी संवेदन शक्ति
चोथा करतां छठ्ठा गुणस्थाने ज वधारे होय छे.
(११०) अंतरात्मानी दशाना प्रकारो
समान स्वसंवेदनशक्ति प्रगटी नथी अने प्रत्याख्यान कषाय पण विद्यमान छे. मुनिदशामां स्वसंवेदनशक्ति एटली
बधी उग्र थई जाय छे के त्यां वारंवार निर्विकल्प आत्मअनुभव थाय छे. विकल्पदशा एक साथे लांबो काळ रहे ज
नहि एवुं ते दशानुं स्वरूप छे, अने ते दशामां प्रत्याख्यान कषायनो पण अभाव होय छे, मात्र संज्वलन कषाय होय
छे, अने ते पण अत्यंत मंद होय छे, त्यां आहारादि क्रिया होती नथी. त्यारपछी विशेष स्वरूप–लीनतावडे श्रेणी मांडे
छे. श्रेणी बे प्रकारनी छे, उपशम अने क्षपक; उपशम श्रेणी मांडनार जीवनो पुरुषार्थ एवा प्रकारनो होय छे के
आठमे–नवमे–दसमे अने अगियारमे गुणस्थाने आवीने त्यांथी पाछो पडे छे, ते श्रेणी वखते तेने संज्वलनकषायनो
उपशम– होय छे; अने जे जीव क्षपक–श्रेणी मांडे ते जीव केवळज्ञान पामे छे. श्रेणी आठमा गुणस्थानथी शरू थाय छे.
ज्यारे नवमुं गुणस्थान आवे त्यारे संज्वलन क्रोध–मान–माया–लोभ अत्यंत मंद थाय छे, ने तेना अंत भागमां
संज्वलन क्रोध–मान तथा मायानो सर्वथा क्षय थाय छे. दसमा गुणस्थाने मात्र संज्वलन लोभ अत्यंत मंदरूप होय
छे, ने अंतभागमां तेनो पण क्षय करीने सीधा बारमा गुणस्थाने आवे छे, त्यां संपूर्ण वीतरागता छे. क्षपक श्रेणी
वाळाने वच्चे अगियारमुं गुणस्थान आवतुं ज नथी.
संपूर्ण केवळज्ञान प्रगट करीने जीव पोते परमात्मा थाय छे, अने त्यारे अंतरात्मपणुं पण टळी जाय छे. पूर्ण
शुद्ध परमात्मदशा ते ज आत्मानुं स्वरूप छे, ने ते ज उपादेय छे.
देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढु हवेइ।।१३।।
परमात्मरूप छे. पण जेने एवा पोताना स्वभावनुं भान नथी ते जीव देहादि तथा रागादिने ज आत्मा माने
छे, तेथी ते मूढ छे, बहिरात्मा छे; ते छोडवा योग्य छे.
(१११) बहिरात्मानुं लक्षण
माने ते जीव पर साथे एकता माने छे, केमके परने अने स्वने एक मान्या वगर परथी लाभ मानी शके ज नहि.