Atmadharma magazine - Ank 077
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २००६ : आत्मधर्म : ८३ :
बुद्धि होय ज. केमके जेनी साथे एकता न माने तेनाथी लाभ माने नहि. देव–गुरु–शास्त्र उपरना रागथी आत्माने
लाभ थाय एम माननारने राग अने देव, गुरु, शास्त्र वगेरे साथे एकत्वबुद्धी छे, ते बहिरात्मा छे, बहारथी
आत्माने लाभ मान्यो माटे बहिरात्मा छे, मिथ्याद्रष्टि छे.
(११२) अंतरात्मानुं लक्षण
जेणे पोताना स्वभावने जाण्यो होय ते जीव कदी पर साथे के विकार साथे एकता माने ज नहि अने तेथी
कोई परथी के विकारथी आत्माने लाभ थाय एम माने ज नहि. परनी संबंध रहित अने विकार रहित एवा
पोताना स्वभावनी ओळखाण ने श्रद्धा करवां ते उपादेय छे, ने ते ज परमात्मदशा प्रगट करवानो उपाय छे.
शुद्ध परमात्मदशानी अपेक्षाए साधकरूप अंतरात्मदशा पण हेय छे, केमके ते पण अपूर्णदशा छे, ते
आत्मानुं पूरुं स्वरूप नथी. जेवो परिपूर्ण शुद्ध त्रिकाळी स्वभाव छे तेवी ज परिपूर्ण शुद्ध परमात्मदशा प्रगट थाय ते
उपादेय छे, त्रिकाळीस्वभाव ने परमात्मदशा अभेद थई जाय छे. अहीं पर्याय अपेक्षाए कथन होवाथी
परमात्मदशाने उपादेय कहेवाय छे. द्रव्यद्रष्टिथी तो त्रिकाळ एकरूप परिपूर्ण द्रव्य ज उपादेय छे; ते द्रव्यना आश्रये
परमात्मदशा प्रगट थई जाय छे.
वीर सं. २४७३. भादरवा सुद–८ सोमवार दसलक्षणी पर्वनो उत्तम शौचदिन (४)
(११३) बहिरात्मानुं स्वरूप
आ शरीर जड छे, तेनाथी आत्मा जुदो छे. आत्मा एटले जाणनार–जोनार वस्तु छे. ते आत्मानी अवस्था
त्रण प्रकारनी छे; तेमांथी बहिरात्मदशानुं वर्णन चाले छे.
आ शरीर जड छे, तेने पोतानुं माने ते बहिरात्मा छे; मिथ्याद्रष्टि छे, ज्ञायकस्वभाव छे तेने जाणतो नथी अने
रागादिने आत्मा माने छे अथवा कर्म के शरीरने पोतानां माने छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. कर्म, शरीर, ने रागद्वेष ए त्रणे
आत्मा नथी; जेम नाळीयेरमां उपरनां छोतां अने काचली तो टोपरांनुं स्वरूप नथी, तेमज तेमां गोटा उपर जे राती
छाल होय छे ते पण टोपरुं नथी, पण चोख्खो सफेद मीठो गोटो ते ज टोपरुं छे तेम आत्मा ज्ञानमूर्ति छे, जे
ज्ञायकभावनो पिंड ते ज आत्मा छे; तेमां आ स्थूळ छोतां जेवुं शरीर छे ते आत्मा नथी, काचली जेवां कर्मो छे ते पण
आत्मा नथी, राग–द्वेष थाय ते राती छाल जेवा छे ते पण चैतन्य गोळा तरफनो भाग नथी पण जड तरफनो भाग छे.
आम जे नथी जाणतो अने रागादिने ज आत्मस्वरूप माने छे ते मूढ छे, बहिरात्मी छे, अज्ञानी छे.
‘एकवार तो आ देह छोडीने मरी जवानुं छे.’ एम अज्ञानी माने छे एटले के शरीर छूटतां आत्मानो नाश
ते माने छे तेथी ते शरीरने ज आत्मा माननार मूर्ख छे. ते जीव शरीरादिनुं लक्ष छोडीने सुखस्वरूप
आत्मस्वभावने पामी शकतो नथी. आत्मानो स्वभाव देहातीत, रागादिथी पार छे तेने मूर्ख अज्ञानी जाणतो
नथी. अहीं अज्ञानीने ‘मूढ–मूर्ख’ कह्यो छे तेमां द्वेषबुद्धि नथी पण संतोनी करुणा बुद्धि छे.
भाई, तुं आत्मा छो, तारी तने खबर नथी, तेथी ज्ञानीओ तने ‘मूर्ख’ कहीने–ठपको आपीने सत्य
समजावे छे. आ शरीर तो तारुं नथी, ने विकारमां पण तारी शांति नथी. तारी शांति तो तारा सहज स्वरूपमां ज
छे. आवा स्वभावनुं भान करवुं ते अंतरात्म दशा छे. बहिरात्मदशा छोडवा योग्य छे, ने ते बहिरात्मदशानी
अपेक्षाए अंतरात्मदशा आदरणीय छे.
।। १३।।
(११४) अंतरात्मानुं स्वरूप
हवे, परमसमाधिमां स्थित थईने जे जीव देहथी भिन्न ज्ञानमय पोताना परमात्मस्वरूपने ध्यावे छे ते जीव
अंतरात्मा छे, –एम कहे छे–
गाथा–१४
देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु णिएइ।
परम समाहि परिठ्ठियउ पंडिउ सो जि हवेइ।।१४।।
भावार्थ :– जे जीव पोताना स्वभावने देहथी भिन्न ने संपूर्ण ज्ञानमय जाणे छे ते जीव ज परम समाधिमां
स्थिर छे, ते ज पंडित छे अने ते ज अंतरात्मा छे.
(११५) धर्मात्मा जीव केवुं आत्मस्वरूप जाणे छे?
जे ज्ञानमय आत्माने माने ते सम्यग्द्रष्टि छे. समयसारमां
‘ज्ञान वपु’ कह्युं छे एटले ज्ञान शरीर ज
आत्मानुं छे, ज्ञानथी भिन्न कोई शरीर आत्मानुं नथी.