लईने पछी दागीनो घडे छे; तेम, केवळज्ञानादि पर्याय प्रगट्या पहेलांं परिपूर्ण आत्मस्वभावनी प्रतीत करीने
पछी तेमां ज एकाग्रतावडे केवळज्ञानादि पर्याय प्रगट करे छे. पण पहेलांं पूर्णस्वभावना भान वगर शेमां
एकाग्र थईने निर्मळदशा प्रगट करशे? जे जीव कायमनुं परिपूर्ण स्वरूप जाणे ते जीव अपूर्णताने पोतानुं स्वरूप
धर्मात्मा गृहस्थने राग थाय खरो, पण तेनी रुचिनुं जोर राग तरफ न होय. रागथी भिन्न
पंडित कह्यो छे; अहीं शास्त्रज्ञानथी पंडितपणुं नथी, पण आत्मज्ञानथी पंडितपणुं छे.
जेम शास्त्रमां लख्युं होय तेम शब्दो वांची जाय पण ज्ञानस्वरूप आत्माने समजे नहि ते पंडित कहेवाय
हता के रींगणां न खवाय. अने तमे ज केम अत्यारे तेनुं शाक करवानुं कहो छो! पंडिते जवाब आप्यो, के ए
वात तो पोथीमां लखेलां ‘रींगणां’नी हती. आ रींगणां तो खवाय!– तेम अज्ञानी जीवो शास्त्रो वांची जाय के
‘आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, परनो अकर्ता छे.’ परंतु पोतानो अभिप्राय तो फेरवे नहि, ने पराश्रय छोडीने पोते
स्वाश्रय करे नहि तो तेनुं शास्त्रज्ञान मात्र ‘पोथी मांहेना रींगणां’ जेवुं छे. तेनाथी कांई आत्मलाभ थाय नहि.
आत्माने अनादिथी अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयथी शरीर–कर्म साथेनो जे संबंध कह्यो छे ते संबंध
शरीर साथे आत्मानो संबंध खरेखर नथी. भगवान आत्मा चैतन्य छे, तेने शरीरादिनो संबंध जुठ्ठो छे. दूध अने
पाणीने एक मानवा ते खरेखर मिथ्या छे केमके दूध ने पाणी भेगां नथी पण जुदां ज छे तेम आत्माने अने शरीरने
एकपणुं मानवुं ते खरेखर मिथ्या छे, बंने भिन्न छे. जेम दूध अने मीठाश एकमेक छे, तेम आत्मा चैतन्यमय छे, ते
चैतन्यथी कदी जुदो नथी, ने शरीर साथे कदी एकमेक थयो नथी. आवुं यथार्थ जाणवुं ते अंर्तद्रष्टि छे; परमार्थे
साक्षात् परमात्म दशा ज उपादेय छे, आ अंतरात्मदशा पण हेय छे केम ते पण अपूर्णदशा छे.
‘हुं, ज्ञानमय चैतन्य परमात्मा छुं’–एम निज शुद्धात्मानी वीतरागनिर्विकल्प सहजानंदमय अनुभूति ते
चैतन्यस्वभावमां जागृत थईने जेणे स्वभावने अनुभव्यो ते ज अंतरात्मा छे; अहींथी ज धर्मनी शरूआत छे.
आ ज साधकभाव छे, अने तेनुं फळ परमात्मदशा छे.
अहीं त्रण प्रकारना आत्मानुं कथन चाले छे. आ पंदरमा दोहामां परमात्मानुं स्वरूप कहे छे–
मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो परु मुण हि मणेण।।१५।।