Atmadharma magazine - Ank 077
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ८४ : आत्मधर्म : फागण : २००६ :
अधूरुं ज्ञान पण आत्मस्वरूप नथी; आत्मानी पर्याय ओछी देखाय ते आत्मानुं स्वरूप नथी; पहेलांं जेम सोनुं
लईने पछी दागीनो घडे छे; तेम, केवळज्ञानादि पर्याय प्रगट्या पहेलांं परिपूर्ण आत्मस्वभावनी प्रतीत करीने
पछी तेमां ज एकाग्रतावडे केवळज्ञानादि पर्याय प्रगट करे छे. पण पहेलांं पूर्णस्वभावना भान वगर शेमां
एकाग्र थईने निर्मळदशा प्रगट करशे? जे जीव कायमनुं परिपूर्ण स्वरूप जाणे ते जीव अपूर्णताने पोतानुं स्वरूप
माने नहि; आवुं जेणे ज्ञान कर्युं तेने सम्यग्ज्ञानरूप कळा खीली, ते धर्मात्मा अंर्तद्रष्टि छे.
(११६) मूर्ख अने पंडित कोण?
धर्मात्मा गृहस्थने राग थाय खरो, पण तेनी रुचिनुं जोर राग तरफ न होय. रागथी भिन्न
अंतरस्वभावनुं जेने भान छे, ते ज जीव पंडित छे. पूर्वनी गाथामां अज्ञानीने मूर्ख कह्यो हतो, ने अहीं ज्ञानीने
पंडित कह्यो छे; अहीं शास्त्रज्ञानथी पंडितपणुं नथी, पण आत्मज्ञानथी पंडितपणुं छे.
(११७) पोथी मांहेना रींगणां
जेम शास्त्रमां लख्युं होय तेम शब्दो वांची जाय पण ज्ञानस्वरूप आत्माने समजे नहि ते पंडित कहेवाय
नहि; तेनुं जाणपणुं ‘पोथी मांहेना रींगणां’ जेवुं छे.
एक वखत कोई शास्त्र भणेला पंडित सभामां वांचता हता के ‘रींगणांमां त्रस जीवो होय छे, रींगणां
खावां न जोईए.’ ज्यारे घरे गयो त्यारे कोई ओळखीता खेडूते तेने ताजां रींगणां आप्या; पंडितजीए तेनी
स्त्रीने कह्युं के ‘आजे आ रींगणांनुं शाक करजो.’ स्त्रीए आश्चर्यथी कह्युं के हजी हमणां ज सभामां तमे कहेता
हता के रींगणां न खवाय. अने तमे ज केम अत्यारे तेनुं शाक करवानुं कहो छो! पंडिते जवाब आप्यो, के ए
वात तो पोथीमां लखेलां ‘रींगणां’नी हती. आ रींगणां तो खवाय!– तेम अज्ञानी जीवो शास्त्रो वांची जाय के
‘आत्मा ज्ञानस्वरूप छे, परनो अकर्ता छे.’ परंतु पोतानो अभिप्राय तो फेरवे नहि, ने पराश्रय छोडीने पोते
स्वाश्रय करे नहि तो तेनुं शास्त्रज्ञान मात्र ‘पोथी मांहेना रींगणां’ जेवुं छे. तेनाथी कांई आत्मलाभ थाय नहि.
(११८) आत्मा अने शरीरादिनो संबंध मिथ्या छे
आत्माने अनादिथी अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनयथी शरीर–कर्म साथेनो जे संबंध कह्यो छे ते संबंध
साचो नथी पण मिथ्या छे. असद्भूतनो अर्थ ज मिथ्या थाय छे. साचो संबंध तो ते कहेवाय के जे कदी जुदो पडे नहि.
शरीर साथे आत्मानो संबंध खरेखर नथी. भगवान आत्मा चैतन्य छे, तेने शरीरादिनो संबंध जुठ्ठो छे. दूध अने
पाणीने एक मानवा ते खरेखर मिथ्या छे केमके दूध ने पाणी भेगां नथी पण जुदां ज छे तेम आत्माने अने शरीरने
एकपणुं मानवुं ते खरेखर मिथ्या छे, बंने भिन्न छे. जेम दूध अने मीठाश एकमेक छे, तेम आत्मा चैतन्यमय छे, ते
चैतन्यथी कदी जुदो नथी, ने शरीर साथे कदी एकमेक थयो नथी. आवुं यथार्थ जाणवुं ते अंर्तद्रष्टि छे; परमार्थे
साक्षात् परमात्म दशा ज उपादेय छे, आ अंतरात्मदशा पण हेय छे केम ते पण अपूर्णदशा छे.
(११९) अंतरात्मदशा अने तेनुं फळ
‘हुं, ज्ञानमय चैतन्य परमात्मा छुं’–एम निज शुद्धात्मानी वीतरागनिर्विकल्प सहजानंदमय अनुभूति ते
ज अंतरात्मापणुं छे. कोई शास्त्रना ज्ञानथी के देव–गुरुनी श्रद्धाथी अंतरात्मापणुं थतुं नथी पण अंतर
चैतन्यस्वभावमां जागृत थईने जेणे स्वभावने अनुभव्यो ते ज अंतरात्मा छे; अहींथी ज धर्मनी शरूआत छे.
आ ज साधकभाव छे, अने तेनुं फळ परमात्मदशा छे.
।। १४।।
वीर. सं. २४७३. भादरवा सुद ९ मंगळवार
दसलक्षणीपर्वनो उत्तमसत्यदिन (प)
(१२०) परमात्मानुं स्वरूप
अहीं त्रण प्रकारना आत्मानुं कथन चाले छे. आ पंदरमा दोहामां परमात्मानुं स्वरूप कहे छे–
गाथा–१५
अप्पा लद्धउ णाणमउ कम्म–विमुक्कें जेण।
मेल्लिवि सयलु वि दव्वु परु सो परु मुण हि मणेण।।१५।।
भावार्थ :– जेमणे ज्ञानावरणादि (भाव तेमज द्रव्य) कर्मोनो नाश करीने अने देहादिक सर्वे परद्रव्योने छोडीने
केवळज्ञानमय परमात्म–प्रकाश प्राप्त कर्यो छे तेमने शुद्ध मनथी परमात्मा जाणो. (अनुसंधान पाना नं. ९५)