Atmadharma magazine - Ank 077
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: फागण : २००६ : आत्मधर्म : ८५ :
धर्म केम थाय ?
राणपुरमां परमपूजय गुरुदेवश्रीनुं व्याख्यान : मागशर वद ९
आ जीव जे समये धर्म करे ते ज समये तेने सुख–शांति थाय छे.
धर्म अने सुख कांई जुदां नथी. आत्मा ज्ञानानंद स्वभावी छे तेनुं जीवे एक सेकंड पण भान कर्युं नथी. धर्म
एटले शुं? आत्मा पदार्थ छे. अने तेना स्वभाव ज्ञान एटले जाणवुं अने आनंद छे. तेना स्वभावमां विकार के दुःख
नथी परंतु पोते पोताना स्वभावने भूलीने परमां ममत्वभाव अने राग–द्वेष नवां नवां ऊभां करे छे ते दुःख छे.
पदार्थ पोते स्वभावथी विकृत के दुःखरूप नहोई शके; पण पोताना वास्तविक स्वभावनुं अज्ञान होय छे त्यारे विकृति
अने दुःख तेनी अवस्थामां थाय छे. सोनामां कथिर छे ते सोनानो मूळ स्वभाव नथी तेथी दूर थई शके छे तेम
चैतन्यरूप आ आत्म पदार्थ शरीर–वाणी–कर्मथी तो त्रिकाळ जुदो छे परंतु जे राग–द्वेष थाय छे ते तेनो स्वभाव नथी
पण अवस्थामां थाय छे, अने ते विकृति छे. डोकटर जे शरीरनो भाग खराब होय छे तेनुं ओपरेशन करे छे केमके ते
खराब भाग शरीरना मूळ स्वभावमां नथी; तेम विकारभाव ते जीवना मूळस्वभावमां नथी तेथी पोताना
चैतन्यरूप मूळ निर्विकार स्वभावनां श्रद्धा–ज्ञान–आचरण वडे ते विकारभाव दूर थाय छे. जेम अरणीना लाकडामां
अग्नि थवानो स्वभाव छे तेथी तेमांथी भडको थईने लाकडाने बाळे छे तेम आत्मानो चैतन्य स्वभाव छे, ते पुण्य–
पापने बाळी नाखनार छे. पुण्य–पाप ते मारो स्वभाव नथी, मारो स्वभाव तो पुण्य–पाप रहित चैतन्यमय छे–एम
पोताना परमब्रह्म आत्माने जाणे, कर्मथी जुदो अने पुण्य–पाप रहित एकरूप पोतानो स्वभाव छे–एवा आत्माने
जाणे तो धर्म थाय. ए सिवाय बीजी कोई रीते धर्म थाय नहि.
आत्मा परनुं तो कांई करी शकतो ज नथी, परनुं करवाना भाव करे पण तेथी कांई परनुं थतुं नथी.
परने माटे कोई कांई करतुं ज नथी, मात्र पोताना रागनी खातर करे छे. निर्धन मनुष्य खरेखर धनिकना गाणां
गातो नथी, पण पोताने धननी रुचि छे ते रुचिनां गाणां गाय छे; केमके जेने धननी रुचि नथी ते धनिकना
गाणां गाता नथी. संसारमां जेने परनी भावना छे ते मागण–भिखारी छे. जे झाझुं मागे ते मोटो मागण अने
थोडुं मागे ते नानो मागण. जे पर पासे कांई न मागे परंतु अनंत गुणसंपन्न एवा पोताना चैतन्य स्वरूप
आत्मानी रुचि करे अने तेमां ठरे ते मोटो बादशाह छे. आचार्य भगवान तो कहे छे के आत्मानो स्वभाव ज्ञान
अने आनंदथी भरपूर छे तेनी जेने खबर नथी ते परमांथी सुख लेवा मागे छे तेथी ते मागण छे.
जेने ज्ञानानंद स्वभावी आत्मानी रुचि नथी तेने आत्मा सिवाय परनी रुचि होय छे. धर्मीने आत्मानुं
भान थया पछी राग होय, पुण्य –पाप होय पण धर्मीनी द्रष्टिमां तेनी रुचि होती नथी. ‘ते विकार छे तथा हुं
निर्विकार ज्ञानानंद छुं–’ एवुं भान तेने निरंतर वर्ते छे. धर्मीने रुचिपूर्वक विकार नथी पण पुरुषार्थनी
नबळाईने कारणे आसक्ति होय छे.
तांबु के कथीर ते सोनानो स्वभाव नथी तेम भगवान आत्माना स्भभावमां पुण्य–पाप ते कथीर
समान होवाथी ते मूळ स्वभाव नथी. अहीं बधा आत्माओने भगवान कहेवाय छे.
सर्वज्ञ भगवाने केवळज्ञानमां आत्मानो जे महिमा जोयो ते वाणीमां पूरो न आवी शक्यो. श्रीमद्
राजचंद्र पण कहे छे के–
‘जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां,
कही शक्या नहीं पण ते श्री भगवान जो;
तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शुं कहे?
अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो.’
आवो दरेक आत्मानो स्वभाव छे. जेम घीनो स्वाद ख्यालमां होय पण वाणीथी पूर्ण रीते तेने वर्णवी न
शकाय तेम आत्मानो चिदानंद स्वभाव छे. तेनी अवस्थामां जे क्रोधादि होय तेना उपर धर्मीनी द्रष्टि नथी. हुं
चिदानंद छुं–एवी द्रष्टि तेने निरंतर वर्ते छे. एवुं भान थया पछी स्वरूपमां ठरतां परमात्मदशा ने सर्वज्ञपद
थाय छे. तेमना ज्ञानमां आत्मानो पूर्ण महिमा भास्यो परंतु तेने वाणीनो योग पूर्णपणे कही शके नहि. जेम
तीखां (मरी) अने मरचांनी तीखाशना