Atmadharma magazine - Ank 077
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ८६ : आत्मधर्म : फागण : २००६ :
स्वादनुं अंतर वाणीथी संतोषकारक रीते न कही शकाय तेम चैतन्यस्वरूप अलौकिक आत्मभगवाननुं वर्णन
वाणीथी केम थाय? आंगळी वडे ईशाराथी बीजना चंद्रनुं लक्ष करावाय, तेम वाणीथी तो मात्र ईशारा थाय.
पण पोते ज्ञानना लक्षमां लई ल्ये तो यथार्थ समजाय.
भगवान आत्मा पुण्य–पाप विनानो छे तेनुं भान थवुं ते सम्यग्दर्शन अने तेमां लीन थतां सर्वज्ञपद
प्रगटे छे ते परमात्मदशा छे. एवा परमात्मानी सहज वाणीमां पण जेना स्वभावना महिमानो पार न पडे
एवो आ आत्मा छे. एवा आत्माना महिमाने जेणे न जाण्यो ते जीवने परवस्तुनी रुचि होवाथी परने मागे
छे, ते ज मोटो मागण छे. अने भान थया पछी पण जेटला अंशे परनी आसक्ति छे तेटले अंशे ते पण
मागणना वर्गमां आवे छे. तोपण ज्ञानी जाणे छे के आ ईच्छा परने मेळववा माटे निरर्थक छे. तेमज
स्वभावनी प्राप्ति माटे निरर्थक छे. आ रीते, ईच्छा होवा छतां ज्ञानी तेने निरर्थक जाणे छे. अने तेथी ईच्छानुं
जोर वर्ततुं नथी.
ईच्छाथी शरीरनो रोग मटतो नथी, ईच्छाथी लक्ष्मी मळती नथी, ईच्छा वडे अनुकूळतानी प्राप्ति के
प्रतिकूळतानो अभाव थतो नथी अने ते ईच्छा वडे ज्ञानानंद स्वभावनी प्राप्ति थती नथी –आवुं ईच्छानुं
निरर्थकपणुं यथार्थपणे जाणे तो ईच्छारहित एवा आत्मानुं भान थाय. पहेलांं तो सत्समागमे आवा आत्माने
जाणवो जोईए. श्रीमद् राजचंद्रजी कहे छे के– पावे नहीं गुरुगम विना एही अनादि स्थित.’
अनंत काळमां सत्समागमे आत्मानो विश्वास आव्यो नथी. भगवान आत्मामां ज्ञानादि अनंत गुणो
छे. तेमां ज्ञान–दर्शन–चारित्र ए त्रण गुणो छे. तेमां ईच्छा ते चारित्र गुणनी विपरीत दशा छे. ते ईच्छा होवा
छतां ते मारुं स्वरूप नथी –एम आत्माने जाणी ने श्रद्धा करे तो ते श्रद्धागुणे आत्माने कल्याणना पंथे जोडी
दीधो. ईच्छा होवा छतां धर्मीए द्रष्टिमां–श्रद्धामां आत्माने शुद्ध तरीके टकाव्यो छे तेनुं ज नाम धर्म छे. विकार
होवा छतां पण ज्ञानीने विकारनी रुचि नथी; तेमनी द्रष्टिमां तो शुद्ध स्वभावनो ज आदर वर्ते छे.
जेम पाणीमां उष्णता होवा छतां तेनो स्वभाव शीतळ छे–एवो विश्वास होवाथी तेने शीतळ करवानो–
ठारवानो प्रयत्न थाय छे, तेम आत्मानी अवस्थामां पुण्य–पापरूप विकार छे तोपण ते रहित स्वभाव तो शुद्ध
ज्ञानानंद छे एवा भानथी विकार टळे छे. पहेलांं तो एवा स्वभावनुं भान थवुं ते सम्यग्दर्शन छे, विकार होवा
छतां आत्माए शुद्ध स्वभावने कबूल्यो त्यारथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे–दया–भक्ति वगेरे शुभभाव होवा
छतां तेना उपर धर्मीनी द्रष्टि नथी. ते तो परमब्रह्म ज्ञानानंद आत्माने ज जाणे छे. अनंता सर्वज्ञ परमात्मा
थया तेमनी पंक्तिमां हुं बेसनारो छुं, तेमनी अने मारी एक ज नात अने जात छे–आवुं भान धर्मात्माने छे.
जड पदार्थोथी अने पुण्य–पापना विकारोथी आत्मा जुदो छे, ज्ञानानंद तेनो स्वभाव छे–एवो पहेलांं
भरोसो जागे त्यारथी धर्मनी शरूआत थाय छे. नीचली दशामां ज्ञानी भले पुण्य–पाप टाळीने स्वमां ठरी न
शके, पण अंतरमां तो ते पुण्य–पापने पोतानो स्वभाव माने नहि. आवुं भान जीवे पूर्वे अनंतकाळमां कर्युं
नथी.
पाणीनो स्वभाव ठंडो छे. अग्निने ठारी नांखवानो तेनो स्वभाव छे. पोते जे अग्निना निमित्ते उष्ण थयुं
ते ज अग्निनो नाश करवानी ताकात राखीने उष्ण थयुं छे; तेम आत्मानो स्वभाव शीतळभूत चैतन्यरूप छे,
पुण्यपापरूपे कषायअग्निनो नाश करवानो तेनो स्वभाव छे. अनादिथी आत्मा भले पुण्य–पापना विकारने
करतो आवे, परंतु पुण्य–पापना विकारोनो नाश करवानो तेनो स्वभाव कदी मटयो नथी. सत्समागम वडे तेवा
स्वभावनो जीवोए यथार्थ भरोसो कर्यो नथी. ‘विश्वासे वहाण तरे’ तेम हुं ज्ञाताद्रष्टा स्वभावरूप छुं, पुण्य–
पाप थाय तेनो नाश करनारो ज छुं एवो विश्वास जीव करे तो मुक्ति थया विना न रहे. जेम कोई डुंगरामां
वीजळी पडे अने तेना बे कटका थई जाय, पछी ते रेण दीधे संधाय नहि तेम चैतन्य स्वभावनुं एकवार भान
थाय, ग्रंथीभेद थाय तो ते पछी फरीने चार गतिमां रखडे नहि.
पात्रताथी सत्समागमे साचा देव–गुरु–शास्त्रने ओळखवां जोईए. दिव्य शक्ति ऊघडी ते देव, ते
स्वरूपना साधक ते गुरु अने देव–गुरुनी अनेकांत स्वभावने बतावनारी वाणी ते शास्त्र छे. ते देव–गुरु–शास्त्र
केवां होय तेने ओळखवां जोईए. जेम झवेरात लेनारा