Atmadharma magazine - Ank 077
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: ८८ : आत्मधर्म : फागण : २००६ :
आत्मानी समजणनो उपदेश
[बोटादमां परमपूज्य गुरुदेवश्रीनुं व्याख्यान : माह वद ७]
‘सद्बोध चंद्र–उदय’नी आ सातमी गाथा छे. तेमां आत्मानी समजण करावे छे. अनंतकाळमां
चैतन्य जातनो महिमा एक सेंकड पण आव्यो नथी. आत्मा शरीरादि पर पदार्थोनुं तो कांई करी शकतो
नथी केमके ते पदार्थो सत् छे, तेनुं फरवुं ते तेने आधीन छे, बीजो तेमां कांई फेरफार करी शके नहि, जड
वस्तुनो वेपार आत्मा करी शके नहि. अज्ञानी जीव राग–द्वेषनो वेपार पोतामां करे छे, ज्ञानी ज्ञाननो
वेपार करे छे. जगतना तत्त्वो स्वतंत्र छे ने आत्मा तेनो द्रष्टा छे. एना भानविना अज्ञानी जीव
सन्नेपातीयानी जेम बके छे के ‘हुं आनुं करुं.’ जेम सन्नेपातीओ घडीकमां कहे के ‘आवो भाई, आवो!’
पछी तरत ज कहे के ‘केम आव्यो? अहीं तारा बापनुं शुं दाटयुं छे?’ एम आगळ पाछळना बोलवानी
तेने जरा य संधि नथी, तेम अज्ञानी वस्तु स्वरूपने जाण्या वगर जेम तेम बके छे. जीव ज्ञानभाव करे
अने कां तो विकारभाव करे, ए सिवाय परनुं कांई करी शके नहि. अनादिथी मूढ अज्ञानी जीवने ‘परनुं हुं
करुं’ एवो अहंकार छे, विषय–भोग–आबरूना भाव ते अरूपी पाप विकार छे. अने दया–दान–पूजा
भक्तिना भाव ते अरूपी पुण्य विकार छे, अज्ञानी ते पुण्य–पापना विकारना कर्तृत्वमां रोकाणो छे, पण
विकार रहित ज्ञानस्वरूपी आत्मा छे तेने ते जाणतो नथी. अनंतकाळमां एक सेकंड पण शुद्ध आत्मानुं
साचुं ज्ञान कर्युं नथी. जेम बीज ऊगी ते पूर्णिमा थाय ज, तेम एक सेकंड मात्र जो शुद्ध आत्मानुं साचुं
ज्ञान करे तो सद्बोधरूपी चंद्रमा ऊगे अने पूर्णता थाय ज.
आत्मा शरीरथी, वाणीथी, पुस्तकथी के मनथी ओळखाय तेवो नथी. शरीरादि तो पर पदार्थ छे, ते पर
वडे स्वपदार्थ जणाय नहि; आत्मा तो अंदरना ज्ञानथी जणाय छे. ते समज्या वगर कोई रीते कल्याण नथी.
चैतन्य तो मनना संकल्प–विकल्पथी पेले पार छे, ते बधाने जाणनार छे. परनी अवस्था तेना स्वतंत्र कारणे
थाय छे, छतां मारा कारणे थाय छे–एम अज्ञानी माने छे ते तेनो भ्रम छे. आत्मामां तो द्रष्टापणुं छे; शरीर
अने आत्मा भिन्न पदार्थ छे, बंनेना स्वभाव भिन्न छे, छतां एक बीजानुं कांई करे एम मान्युं तेणे बे तत्त्वो
स्वतंत्र न मान्या. जे पदार्थो बिलकुल न होय ते नवा उत्पन्न थाय नहि, ने जे पदार्थ होय ते सर्वथा नष्ट थाय
नहि, पण जे पदार्थ होय ते पोते स्वभावथी ज बदल्या करे छे. शरीरनी अवस्था बदले ते आत्मानुं कार्य नथी.
जगतना जड ने चैतन्य पदार्थो भिन्न भिन्न छे, तेमां रूपांतर थईने जे जे अवस्था थाय ते ते तेनुं कार्य छे, ने ते
पदार्थ तेनो कर्ता छे. परथी जुदो पोतानो स्वभाव छे, तेने जीव जाणे तो जुदाई (–मुक्ति) थया विना रहे
नहि.
शरीरथी तो आत्मा जुदो छे, ने अंदर जे पुण्य–पापना विकल्पो ऊठे ते क्षणिक छे. आत्मा मन अने
वचनथी अगोचर छे. चैतन्यस्वरूप आत्मा छे, ते नित्य टकीने बदलनार छे. एनुं माहात्म्य आवे तो तेमां
रमणतारूप चारित्र प्रगटे. पण ते चैतन्य मूर्ति आत्मा केम जणाय? कोई देव–गुरु–शास्त्रद्वारा के पुण्य–पाप
द्वारा ते जणाय तेवो नथी, जो ते परथी जणातो होय तो तेनी स्वतंत्रता रहेती नथी, ते पोते पोताना ज्ञानथी
जणाय छे. अनंतकाळमां एक सेकंड पण परथी भिन्न चैतन्यनो विवेक जीवे कर्यो नथी, जो एक क्षण पण एवुं
भेदज्ञान एटले के साची समजण प्रगट करे तो मुक्ति थया विना रहे नहि.
हुं पुण्य–पापनो कर्ता एम जेणे मान्युं तेणे विकारने ईष्ट मान्यो छे. कर्तानुं ईष्ट ते कर्म. आत्माने जे ईष्ट
लागे तेनो ते कर्ता थाय. अज्ञानी पुण्य–पापनो कर्ता थाय छे, एटले तेने विकार ईष्ट लागे छे, ने विकार
वगरनो जे निर्मळानंद चैतन्य स्वभाव त्रिकाळ छे तेनी प्रीति नथी. निर्विकार चैतन्य स्वभाव छे ते विकार
द्वारा जणातो नथी. निर्विकार स्वभावना भानमां ज्ञानी विकारना कर्ता थता नथी, विकार थाय तेने ते ईष्ट
मानता नथी, तेथी ते तेना कर्ता नथी.
एक समयना विकारनुं कर्तापणुं जेणे मान्युं तेणे