: चैत्र : २००६ : आत्मधर्म : १०५ :
पदार्थ छे. तेने पर पदार्थनो आश्रय मानवो ते भयंकर भावमरण छे. ज्ञानी पुरुषो जगतना जीवोने संबोधीने
कहे छे के, ‘अरे जीवो! क्षणे क्षणे थता एवा भाव–मरणोमां तमे कां राचि रहो छो!’
भवनो नाश करवानी ते भावना अथवा समाधिनी भावना श्रीमद्ने अहीं आ राजकोटमां आजे (चैत्र
वद पांचमे) पूरी थई, एटले के तेमनुं समाधि–मृत्यु अहीं राजकोटमां आजे थयुं हतुं.
भवना अंतनो उपाय एक मात्र आत्मानी साची ओळखाण करवी ते छे. आ ज आत्माने तरवानो
उपाय छे. आ ज पंथे अनंत आत्माओ भूतकाळमां तर्या छे अने भविष्यकाळमां पण आ ज उपायथी तरशे.
श्रीमद् अंतरथी घणा उदासीन हता. मुंबई जेवा प्रवृत्तिवाळा शहेरमां रहेवा छतां मुंबईने ‘मोहमयी
नगरी’नी उपमा आपीने, तेने उपाधिमय कहीने, व्यापार आदिनी उपाधिमां जोडावानो नकार करता हता;
एटले के उपाधिमय भावथी निवृत्तिनी भावना भावता हता.
आधि, व्याधि अने उपाधि रहित आत्मानी समाधिनी वात बधा जीवो समजी शके एम छे. आठ वर्षना
बाळको पण आत्मानी साची ओळखाण अने समाधि प्रगट करी शके छे.
श्रीमद्दे २९मां वर्षमां आत्मसिद्धिशास्त्र बनाव्युं छे. तेनी पहेली कडीमां कह्युं छे के :
‘जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख अनंत;
समजाव्युं ते पद नमुं, श्री सद्गुरु भगवंत.’
आत्मसिद्धिमां प्रथम ज कह्युं छे के : जीव पोतानुं साचुं स्वरूप समज्या विना अनंत दुःख पाम्यो; परंतु
त्यां, ‘जीवे परोपकार न कर्यो, कुटुंबनुं भलु न कर्युं, पर जीवोनी दया न पाळी, जात्रा, पूजा, ओळी के आंबेल न
कर्या माटे ते दुःख पाम्यो’ एम न कह्युं; कारण के जीवे ते बधुं अनंतवार कर्युं छे, मात्र एक पोतानुं साचुं स्वरूप
ज नथी समज्यो, अने तेथी अनंतकाळथी अज्ञानने लीधे अनंतु दुःख पाम्यो छे. माटे जे जीव शरीर अने राग
आदि विकारी भावोथी रहित पोताना शुद्ध स्वरूपने समजे तेने दुःख मटवानो आ उपाय कहेवाय छे. जेओने
समजवानी रुचि नथी तेओ तो संसारमां एम ने एम रहेवाना छे.
जीव पोताना स्वरूपनी साची समजण विना अनंत दुःख पाम्यो. त्यां, अनंत एटले काळ क्रमे अनंत
दुःख पाम्यो एम नहि; परंतु अनंत पर पदार्थोथी भिन्न अनंत ज्ञानदर्शनरूप, अनंत निराकुळ आनंद
स्वभावरूप सुख स्वभावनो, पोताना स्वरूपना अज्ञानने लीधे वर्तमान अवस्थामां नकार करीने अनंत
अनाकुळ स्वभावथी विपरीत दशा ऊभी करी ते ज वर्तमान एक समयना पर्यायमां अनंतुं दुःख छे. आम
समय समय करतां अनंत काळथी जीव दुःख दशा भोगवे छे. पण आत्मानी साची समजणथी ते दुःख नाश
पामे छे. तेथी कह्युं के–
‘समजाव्युं ते पद नमुं, श्री सद्गुरु भगवंत.’
जेमनी पासेथी स्वरूपनी यथार्थ समजण प्राप्त थई एवा गुरुनो अहीं विनय कर्यो छे. आ भवमां
श्रीमद्ने पोताने गुरु मळ्या नथी, पण पूर्वना स्मरणमां जे गुरु हता तेमनो बहुमानपूर्वक विनय करीने आ
प्रथम श्लोक कर्यो छे. आत्मसिद्धि पूर्ण करतां छेल्ले लख्युं छे के–
‘देह छतां जेनी दशा, वर्ते देहातीत,
ते ज्ञानीनां चरणमां हो वंदन अगणित,’
लोको तत्त्वनुं यथार्थ स्वरूप समजे नहि अने उपरथी ज्ञानी जेवी भाषा करे एमां सत्य नथी. तळावमां
मध्यनी अने कांठानी सपाटी बहारथी तो सरखी लागे, परंतु वांसडा वडे तेनी ऊंडाई जोवामां आवे तो कांठे
चार आंगळ पाणी ऊंडुं होय अने मध्यमां बे, चार माथोडां पाणी ऊंडुं होय ए प्रमाणे जेने तत्त्वनो वास्तविक
ख्याल नथी तेने उपरथी तो एम ज लागे के बधा य उपदेशको आत्मानी वात करे छे; परंतु जो तत्त्वना मूळमां
जईने ऊंडाणथी गंभीरतापूर्वक तेनो वास्तविक अभ्यास करे तो तेने वीतराग मार्ग अने बीजा–धर्मना
नामना–उपदेशको वच्चे उगमणा–आथमणा जेटलो तफावत लागे. जीवनुं खरुं स्वरूप शुं? विकारनुं स्वरूप शुं?
विकारनुं कारण कोण? –कर्म, पर पदार्थो के आत्मानी भूल? तेने टाळवानो उपाय शो? विकार रहित मोक्षनुं
स्वरूप शुं? वगेरे तत्त्वनुं यथार्थ स्वरूप घणुं गहन छे. तेने बरोबर समजवुं जोईए.