Atmadharma magazine - Ank 078
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: १०६ : आत्मधर्म : चैत्र : २००६ :
खरेखर देहातीतनुं स्वरूप शुं? देहातीत कोने कहेवो? कोई मारी नाखे, शरीरने कापी नाखे अने
मोढामांथी ऊंहकारो न करे ते कांई देहातीत नथी, कारण के आत्माना भान वगरना जीवो पण लडाईना
प्रसंगमां मानने लक्षे, शरीर कपातां छतां ऊंहकारो करता नथी. बाईओ घासतेल छांटीने बळी मरे छे छतां
ऊंहकारो करती नथी. शुं ते देहातीत छे? –नहि. जेने शरीर, वाणी आदि पर पदार्थोथी जुदां एवा पोताना
आत्मानुं यथार्थ भान छे, देह उपर मारो अधिकार नथी, देह, ज्ञानावरणीय आदि कर्मोना समूहरूप बनेलुं
कार्मण शरीर अने राग–द्वेष, दया–दाननां शुभ परिणाम तेम ज अशुभ परिणाम–ए बधानी पार आत्मा छे;
आत्मामां आ बधा नथी. पर तथा शुभाशुभ विकारथी भिन्न एवा पोतानुं स्वरूप समजयो ते आत्मा ज
देहातीत थयो छे. स्वरूपनी साची समजण थतां ते एम जाणे छे के ‘आ शुभाशुभ विकार ते हुं नहि, आ शरीर,
वाणी वगेरे हुं नथी, हुं ज्ञाता छुं अने तेओ मारा ज्ञेय छे.’
‘हुं कर्ता अने शरीरादिनी कोई अवस्था मारुं कार्य छे एम नथी; हुं भोक्ता अने ते मारुं भोग्य छे एम
नथी. खरेखर तो शुभाशुभ विकार, दयादिनी लागणीओ मारुं कार्य तेम ज भोग्य नथी; परंतु शुद्ध ज्ञानस्वभाव
प्रगट करीने तेनो अनुभव करवो ते ज मारुं कार्य अने भोग्य छे.’ आवुं भान थयां छतां अवस्थामां
नबळाईने लीधे वृत्ति ऊठे तो तेनुं वलण सर्वज्ञ भगवान तथा ज्ञानीओ तरफ रहो, परंतु विषय–कषायादि
अशुभभावमां न रहो. आवुं ‘समजाव्युं ते पद नमुं, श्री सद्गुरु भगवंत.’ आ कथननुं रहस्य छे. श्रीमद्ना
कथननुं रहस्य नहि समजतां, रागीओ–पक्षवाळा तेमना शब्दोने खेंचे छे (–आग्रहथी लख्या प्रमाणे शब्दार्थ करे
छे, परंतु तेमनो हेतु समजता नथी.), अने द्वेषीओ तेनी निंदा करे छे. बेमांथी कोई श्रीमद्ना आशयने
ओळखी शकता नथी.
श्रीमद् राजचंद्रे एवुं शुं कर्युं के तेमनुं समाधि–मरण वखणाय छे? श्रीमद्दे पोतानी एक कवितामां लख्युं
छे के :–
अवश्य कर्मनो भोग जे, भोगववा अवशेष रे;
तेथी देह एक ज धारिने, जाशुं स्वरूप स्वदेश रे.
वळी तेमां ज पहेली कडीमां कहे छे के :–
धन्य रे दिवस आ अहो, जागी रे शांति अपूर्व रे;
दश वर्षे रे धारा उलसी, मट्यो उदय कर्मनो गर्व रे.
श्रीमद्ने अंतरमां आत्मानुं भान हतुं. तेमने चैतन्य–जागृत सत्तानी ओळखाण थई छे, छतां
अस्थिरता छे तेटलो राग छे. एटली कचाशने लईने, देह छूटतां आ भवमां नथी, पण अंतरमां तेमने खातरी
छे के आ अस्थिरताने–कचाशने–शुभाशुभरूप बहारना उत्थाने टाळी पूर्ण वीतराग थई जशु; स्व देश जशुं.
पोताना आत्मामां पूर्ण थवुं, स्वरूपमां पूर्ण समाई जवुं ते स्वदेशमां जवुं छे, आत्मा सिवाय कोई बहारनुं क्षेत्र
स्वदेश नथी. हवे एक देह धारीने अंतरमां स्थिर थई स्वदेश जईशुं. आवा आत्मभानपूर्वक अने आत्मशांति
सहित तेमनुं मरण–आ देहनो वियोग थयो होवाथी ते वखणाय छे.
‘अपूर्व अवसर’मां पण स्वकाळनी एटले के स्व पर्यायनी शुद्धतानी भावना छे. अपूर्व अवसरमां
पहेली कडीमां भावना भावे छे के :–
अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे? क्यारे थईशुं बाह्यांतर निर्ग्रंथ जो?
सर्व संबंधनुं बंधन तीक्ष्ण छेदीने विचरशुं कव महत्पुरुषने पंथ जो? अपूर्व.१.
अंतर आत्मानुं भान थयुं छे पण स्वभावना पुरुषार्थ वडे अंतर अस्थिरताना रागादिने तोडी,
स्वरुपमां विशेष स्थिर थई आभ्यंतर तेम ज बाह्य निर्ग्रंथ कयारे थाशुं ? बाह्याभ्यंतर निर्ग्रंथ स्वकाळ क्यारे
प्रगट करशुं? एवो अपूर्व अवसर–अपूर्व निर्मळ शुद्ध दशा अमने क्यारे प्रगट थशे! अपूर्व अवसर एवो
क्यारे आवशे? क्यारे निर्ग्रंथ थशुं? एम निर्ग्रंथ थवानी श्रीमद्दे भावना भावी छे. अंतर स्वभावमां लीनता
करी, अंतरमां ठरीने अपूर्व स्वभाव दशा–स्वकाळ–अपूर्व स्व–रमणता क्यारे प्रगट करशुं? एवी अंतरनी
भावना भावी छे.