प्रसंगमां मानने लक्षे, शरीर कपातां छतां ऊंहकारो करता नथी. बाईओ घासतेल छांटीने बळी मरे छे छतां
ऊंहकारो करती नथी. शुं ते देहातीत छे? –नहि. जेने शरीर, वाणी आदि पर पदार्थोथी जुदां एवा पोताना
आत्मानुं यथार्थ भान छे, देह उपर मारो अधिकार नथी, देह, ज्ञानावरणीय आदि कर्मोना समूहरूप बनेलुं
आत्मामां आ बधा नथी. पर तथा शुभाशुभ विकारथी भिन्न एवा पोतानुं स्वरूप समजयो ते आत्मा ज
देहातीत थयो छे. स्वरूपनी साची समजण थतां ते एम जाणे छे के ‘आ शुभाशुभ विकार ते हुं नहि, आ शरीर,
वाणी वगेरे हुं नथी, हुं ज्ञाता छुं अने तेओ मारा ज्ञेय छे.’
प्रगट करीने तेनो अनुभव करवो ते ज मारुं कार्य अने भोग्य छे.’ आवुं भान थयां छतां अवस्थामां
नबळाईने लीधे वृत्ति ऊठे तो तेनुं वलण सर्वज्ञ भगवान तथा ज्ञानीओ तरफ रहो, परंतु विषय–कषायादि
अशुभभावमां न रहो. आवुं ‘समजाव्युं ते पद नमुं, श्री सद्गुरु भगवंत.’ आ कथननुं रहस्य छे. श्रीमद्ना
कथननुं रहस्य नहि समजतां, रागीओ–पक्षवाळा तेमना शब्दोने खेंचे छे (–आग्रहथी लख्या प्रमाणे शब्दार्थ करे
ओळखी शकता नथी.
तेथी देह एक ज धारिने, जाशुं स्वरूप स्वदेश रे.
दश वर्षे रे धारा उलसी, मट्यो उदय कर्मनो गर्व रे.
छे के आ अस्थिरताने–कचाशने–शुभाशुभरूप बहारना उत्थाने टाळी पूर्ण वीतराग थई जशु; स्व देश जशुं.
स्वदेश नथी. हवे एक देह धारीने अंतरमां स्थिर थई स्वदेश जईशुं. आवा आत्मभानपूर्वक अने आत्मशांति
सहित तेमनुं मरण–आ देहनो वियोग थयो होवाथी ते वखणाय छे.
सर्व संबंधनुं बंधन तीक्ष्ण छेदीने विचरशुं कव महत्पुरुषने पंथ जो? अपूर्व.१.
प्रगट करशुं? एवो अपूर्व अवसर–अपूर्व निर्मळ शुद्ध दशा अमने क्यारे प्रगट थशे! अपूर्व अवसर एवो
क्यारे आवशे? क्यारे निर्ग्रंथ थशुं? एम निर्ग्रंथ थवानी श्रीमद्दे भावना भावी छे. अंतर स्वभावमां लीनता
करी, अंतरमां ठरीने अपूर्व स्वभाव दशा–स्वकाळ–अपूर्व स्व–रमणता क्यारे प्रगट करशुं? एवी अंतरनी
भावना भावी छे.