Atmadharma magazine - Ank 078
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २००६ : आत्मधर्म : १०७ :
३३ वर्षनी देहनी स्थितिए तेमणे आवी भावना भावी छे. ३३ वर्षनी आटली नानी वयमां तेमनो
देह–त्याग थयो हतो. कोई एम कहेतुं हतुं के, तेमणे व्यापारादिमां व्यवसाय–उपाधि बहु करी माटे नानी वयमां
तेमनुं शरीर क्षीण थई गयुं अने छूटी गयुं. परंतु कहेनारनी ते वात खोटी छे. भाई! जे समये देह छूटवानो
होय छे, परमाणुओनी जे टाणे जे अवस्था थवानी होय छे ते ते ज समये – ते ज प्रमाणे थाय छे; तेमां कोई
कांई आघुंपाछुं करी शकतुं नथी. घणी चिंता करे माटे देह जलदी छूटी जाय, ए वात साची नथी. बहु उपाधि करे
माटे देह क्षीण थाय अने उपाधि ओछी करे तो शरीरनी अवस्था हृष्ट–पुष्ट रहे, ए वात खोटी छे. जीव चिंता
करे तो तेने शांति घटे छे अने आकुळता थाय छे ते वात साची छे, पण चिंता–अचिंताथी शरीरमां रोग–
नीरोगता थाय एम बनतुं नथी. श्रीमद्ने शरीरमां ज्यारे संग्रहणी–शरीरना परमाणुओनी तेवी अवस्था–
थवानी हती त्यारे थई छे.
वळी तेओ अपूर्व अवसरमां, शत्रु–मित्र प्रत्येना–द्वेष तेम ज रागनी–लागणी रहित समदर्शी स्वभाव
तथा भवनो नाश करवो. अने मोक्ष प्रगट करवो एवा बन्ने विकल्पो रहित केवळ शुद्ध स्वभावना–केवळ
साक्षी–स्वभावनी–भावना भावे छे.
शत्रु मित्र प्रत्ये वर्ते समदर्शीता, मान अमाने वर्ते ते ज स्वभावजो;
जीवित के मरणे नहि न्यूनाधिकता, भव मोक्षे पण वर्ते शुद्ध समभावजो. अपूर्व.
आ आत्माने बहारमां कोई शत्रु के मित्र छे नहि. आत्मानो शत्रु अज्ञान अने राग–द्वेष विकारी
परिणाम छे, अने मित्र चैतन्य आनंद–कंद त्रिकाळी स्वभाव छे. कह्युं छे के:–
पुरिसा तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मितमिच्छसि।
हे जीव! तुं ज तारो मित्र छे, तुं बाह्य–मित्रनी ईच्छा केम करे छे? खरेखर बहारमां कोई तारो मित्र
नथी.
वळी मान–अपमान कोनां? सामो जीव तेने ठीक लागे–तेने गोठे–तेम तेना भावो करे छे; तेने न रुचे ते
तेनो (पोतानो) अनादर करे छे अने रुचे तो पोतानी रुचिनो आदर करे छे. परनो आदर–अनादर कोई करतो
नथी.
वळी, ‘जीवन के मरणे नहि न्यूनाधिकता,’ मरण होय तो ठीक नहि अने जीवन होय तो ठीक; अथवा
आ आम केम? एवी न्यूनाधिकता जेमां नथी एवां मुनिपदनी तेओ भावना भावे छे. शरीरना संयोग–
वियोगनी जे काळे जे दशा थवानी होय तेम थाय छे; जीवन टाणे जीवे एटले के शरीर जीव साथे एक क्षेत्रे रहे,
अने मरण टाणे शरीर छूटे, सौने टाणे सौ पोतपोतानुं काम करे, तेमां आम थाय तो ठीक, एवो न्यूनाधिक
एटले के ठीकाठीकनो भाव जेमां नथी एवा स्वभाव–पदनी आ भावना छे.
‘भव मोक्षे पण वर्ते शुद्ध समभावजो.’ –हुं ज्ञानदर्शन स्वभावमां रहेनारो छुं, भव अने मोक्ष एवा बे
भेदोनो–बे विकल्पोनो आश्रय करनारो हुं नथी. कोई कहे के तारो आ भवे मोक्ष छे, तो य शुं? अने कोई कहे के
तारो एक भवे मोक्ष छे, तो य शुं? भव मारामां खरेखर क्यां छे? अने मोक्षना पर्याय जेटलो य हुं क्यां छुं, हुं
तो त्रिकाळी ज्ञान–दर्शन स्वभाव छुं, भव–मोक्षना पर्याय जेटलो के ते बेना विकल्प जेटलो हुं नथी. ते बंने
पर्यायोमां मन समभाव छे एटले के ए बंनेना विकल्पो तरफ मारुं वलण नथी, हुं तेमनो ज्ञाता छुं–जाणनार
देखनार–साक्षीमात्र छुं.
आत्मस्वभावनो महिमा करतां, ते स्वभाव–पद वाणीथी अगोचर छे, पूर्ण रीते–संतोष थाय एम सर्व–
प्रकारे–वाणीमां तेनुं कथन आवी शकतुं नथी एम कहे छे :–
जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां, कही शक्या नहि पण ते श्री भगवान जो;
तेह स्वरूपने अन्यवाणी ते शुं कहे? अनुभव गोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो. अपूर्व.
भगवान सर्वज्ञदेवे पोतानी निर्मळ दशामां–केवळ ज्ञानमां आत्माने जेवो पूर्ण जोयो तेवो तेने वाणी–
वाहनमां तेओ पण पूर्णपणे कही शक्या नहि. अल्पज्ञने तो ज्ञान अल्प होवाथी तेने वाणीमां निमित्तता अल्प
छे, परंतु सर्वज्ञ भगवान–के जेमने परिपूर्ण