Atmadharma magazine - Ank 078
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: १०८ : आत्मधर्म : चैत्र : २००६ :
ज्ञान प्रगट थयुं छे, मोह–राग–द्वेषादि दोषोनो सर्वथा नाश थयो छे, एक समयमां त्रणकाळ–त्रणलोकना
पदार्थोने एक साथे पूर्ण जाणे छे–तेमनी दिव्य वाणी पण आत्मस्वभावनुं पूर्ण वर्णन करी शकती नथी. तो
अल्पज्ञनी वात शी? आत्मस्वभाव मात्र स्वानुभवगोचर छे. पोते जाते तेनी ओळखाण करी–अनुभव करीने
तेनो पार पमाय छे.
छेल्ली कडीमां कहे छे के :–
एह परमपदप्राप्तिनुं कर्युं ध्यान में, गजावगर ने हाल मनोरथ रूप जो;
तोपण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो; प्रभु आज्ञाए थाशुं ते ज स्वरूप जो. अपूर्व.
पुण्य–पापना विकारथी रहित आत्माना पूर्णपदनी प्राप्ति माटे में ध्यान कर्युं छे. मारुं ध्येय एटले के लक्ष्य
एक आत्मानुं पूर्ण शुद्ध पद ज छे. बीजु कांई मारुं ध्येय नथी, शुभ विकार के तेना फळरूप देवादिना संयोगो मारुं
लक्ष्य नथी. मारुं ध्यान तो पूर्ण शुद्धात्मपदनी प्राप्तिमां छे, छतां आ भवमां ते पूर्णपद प्राप्त करुं एवो मारो
पुरुषार्थ नथी, तेथी ‘गजावगर ने हाल मनोरथरूप जो.’ वर्तमान पूरो पुरुषार्थ नहि होवाथी गजावगरनो छुं,
छतां पण वर्तमानमां मनोरथ–मनरूपी रथनां पैडां–पूर्णानंद स्वभाव तरफ ज दोडे छे. पुण्य–पाप तरफ दोडतां
नथी. ‘तोपण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो.’ अने मारा मनोरथ पूर्ण स्वभाव तरफ दोडता होवाथी, श्रीमद्
राजचंद्र कहे छे के :– ‘मारा आत्माने खातरी छे के ‘प्रभु आज्ञाए थाशुं ते ज स्वरूप जो.” सर्वज्ञ भगवाने स्वयं
ते परमपद प्रगट करीने तेनो जे पंथ कह्यो, तेमणे जे आज्ञा कही ते मारा ख्यालमां छे. जे प्रमाणे परमपदनो पंथ
कह्यो छे ते प्रमाणे स्थिर थतां ‘थाशुं ते ज स्वरूप जो.’ एटले के अमे पोते परमपदरूप थई जशुं.
त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर भगवाने आत्मानो जेवो स्वभाव कह्यो छे तेवो समजवो ते तेमनी आज्ञा छे.
‘आ’मर्यादा, ‘ज्ञा’–अंतर ज्ञान करवुं ते. आत्मादि पदार्थोनुं जेवुं स्वरूप छे तेवुं तेनी स्वरूप–मर्यादा प्रमाणे
समजवुं ते भगवाननी आज्ञा छे. ए रीते शरीरादि परथी तथा रागादि विकारथी रहित आत्मानी ओळखाण
थई छे, अने जे कांई अपूर्णता रही गई छे तेनो नाश करीने पूर्ण थशुं. आवी भावनापूर्वक आजना दिवसे
श्रीमद्दे राजकोटमां समाधिमरण कर्युं हतुं.
कोई कहे छे के श्रीमद्दे अहींथी मरीने सीधो मनुष्यदेह धारण कर्यो छे, ते महाविदेह क्षेत्रमां अत्यारे
मनुष्यपणे छे, अने तेमने केवळज्ञान थयुं छे. आ वात तद्न खोटी छे. श्रीमद् महाविदेहमां मनुष्यपणे जनम्या
नथी, कारण के सम्यग्द्रष्टि मनुष्य मरीने (कर्मभूमिमां) मनुष्य थाय ज नहि. मनुष्य मरीने मनुष्य थाय ते तो
मूढ होय–मिथ्याद्रष्टि होय. ‘श्रीमद् मरीने मनुष्य थया छे’ एम कहेनारा पोते श्रीमद्ने मूढ–मिथ्याद्रष्टि ठरावे छे
तेनुं तेने भान नथी. ज्ञानी मनुष्य मरीने देवमां ज जाय, एवो नियम छे.
अंतर स्वभावनी भावना भावतां देह छूटे, आत्मानी शांतिपूर्वक देह–वियोग थाय तेने समाधि कहे छे.
आ सिवाय बीजुं जे कांई करे ते समाधि नथी.
श्रीमद् मोक्षमाळामां ‘अमूल्य तत्त्वविचार’ना पाठमां कहे छे के :–
‘हुं कोण छुं क्यांथी थयो? शुं स्वरूप छे मारुं खरुं? कोना संबंधे वळगणा छे? राखुं के ए परहरुं?
एना विचार विवेकपूर्वक शांत भावे जो कर्या; तो सर्व आत्मिक ज्ञानना सिद्धांततत्त्वो अनुभव्यां.
ते प्राप्त करवा वचन कोनुं सत्य केवळ मानवुं? निर्दोष नरनुं कथन मानो ‘तेह’ जेणे अनुभव्युं;
रे! आत्म तारो! आत्म तारो! शीघ्र एने ओळखो, सर्वात्ममां समद्रष्टि द्यो, आ वचनने हृदये लखो.
हे जीव! तुं तारा आत्माने ओळखीने सर्वात्ममां समद्रष्टि कर! कोईना प्रत्ये विषमभाव राखीने तारे शुं
प्रयोजन छे? सामो जीव एने भावे तरे छे अने एना जोखमे बूडे छे, तुं तारामां समभाव राख, ठीक–
अठीकभाव रहित सर्वने देख अने जाण! आवी भावना राखतां देह छूटे तेने समाधि–मृत्यु कहे छे. अनंत
वोने पूर्वे आवांं समाधि–मृत्यु थई गयां छे. अने वर्तमानमां जेओने आत्मज्ञान छे तथा भविष्यमां जेमने थशे
तेमने समाधि–मरणे देह छूटशे, माटे आ समाधि–मरण अनुमोदवा जेवुं छे.