Atmadharma magazine - Ank 078
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २००६ : आत्मधर्म : १०९ :
श्री परमात्मा – प्रकाश – प्रवचनो
लेखांक १४ मो ] [अंक ७ थी चालु
: वीर सं: २४७३ भादरवा सुद १० बुधवार : दसलक्षणीपर्वनो उत्तम संयमदिन (६)
[श्री परमात्म प्रकाश–गा. १७–१८]
() त्त र् : आजे दसलक्षणपर्वनो उत्तम संयमनो दिवस छे, ते संयमधर्मना
फळमां परमात्मदशा प्रगटे छे. आत्मानो स्वभाव त्रिकाळ परमात्मस्वरूप छे, एनी श्रद्धा–ज्ञान पूर्वक उत्तम
संयम होय छे अने तेना फळमां परमात्म पर्याय प्रगटे छे.
() ध् ग् त्स् ? : ध्यान करवायोग्य त्रिकाळ परमात्मस्वभाव केवो छे ते
आ गाथामां बतावे छे.–
गाथा – १७
णिच्चु णिरंजणु णाणमउ परमाणंद सहाउ।
जो एहउ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ।।
१७।।
भावार्थ :– जेनो नित्य निरंजन ज्ञानमय परमानंद स्वभाव छे एवो आ आत्मा पोते ज शांत अने
शिव–स्वरूप छे; हे प्रभाकर भट्ट! तुं एवा आत्मस्वभावने जाण अर्थात् तेनुं ध्यान कर.
आत्मा त्रिकाळ परमानंदमय ज्ञानस्वभावी छे, विकार रहित अबंध छे; मोक्षदशा थवी ते पर्यायद्रष्टिथी
छे. बंध दशा हती ने मोक्षदशा थई–एवा बे भेद त्रिकाळ आत्मस्वभावमां नथी. बंध–मोक्ष पर्यायमां छे,
त्रिकाळ स्वभावमां नथी. एवा त्रिकाळी स्वभावने जाणीने तेनुं ध्यान करवुं ते ज मुक्तिनुं कारण छे.
() म्ग्र् ध् : आत्माना स्वभावमां त्रणे काळे राग नथी, अने ज्यां राग ज नथी
त्यां परद्रव्य साथेनो संबंध क्यांथी होय? आत्मानो स्वभाव भावकर्मथी रहित छे, अने जडकर्मथी पण रहित
छे. त्रिकाळ निरपेक्ष एकला ज्ञानमय छे, ज्ञानथी परिपूर्ण स्वभाव छे. आवी वस्तु ते ज सम्यग्दर्शननुं ध्येय छे.
अर्थात् एवी वस्तुना ध्यानथी ज सम्यग्दर्शन प्रगटे छे.
() स् िि जा . : स्वभाव त्रिकाळ परमानंदमय छे अने तेनी
द्रष्टिथी जे परमानंद परिणति प्रगटी ते पण अभेदपणे स्वभावमां ज समाई गई. त्रिकाळना लक्षे जे आनंदनो
अंश प्रगट्यो ते अंश त्रिकाळमां ज भळी गयो, एटले ते परमानंददशा पण अभेदपणे शुद्ध द्रव्यार्थिकनयनो
विषय थई गई.
() र्ध् त्तर्द्र ध् : आत्मानो स्वभाव नित्य–निरंजन–ज्ञानमय परमानंद स्वरूप छे,
ते त्रिकाळ कल्याण स्वरूप छे, तेमां कदी उपद्रव नथी, बंधननी उपाधी नथी. हे शिष्य, तुं एवा त्रिकाळ शुद्ध बुद्ध
परमात्मस्वभावने जाणीने तेनुं ध्यान कर. स्वभावनुं ज्ञान करीने त्यां ज एकाग्र था, ए ज धर्मध्यान छे.
रागादिमां एकाग्रता ते आर्त्त–रौद्रध्यान छे. रागादिनी एकाग्रता ते संसार छे, ने स्वरूपनी एकाग्रता ते
मुक्तिनुं कारण छे.
() म्ग्र्ज्ञित्र ध् , ध् प्र : शुद्ध आत्मस्वभावनी श्रद्धा
करवी ते पण परमात्म–स्वभावनुं ज ध्यान छे. सम्यग्दर्शन पण स्वरूपनी ज एकाग्रता छे, अने सम्यग्ज्ञान ते पण
ध्यान ज छे, अने सम्यक्चारित्र पण ध्यान छे. ए त्रणे स्वाश्रयनी एकाग्रतारूप ध्यानना ज प्रकार छे. अने
पराश्रयनी एकाग्रता ते मिथ्याश्रद्धा–मिथ्याज्ञान ने मिथ्याचारित्र छे. ध्याननी ज मुख्यताथी आ शास्त्रमां वर्णन छे.
परमात्मस्वभावना ध्यानथी ज सम्यग्दर्शन प्रगट थाय छे. सम्यग्ज्ञान पण चैतन्यनी एकाग्रतारूप ध्यानथी ज
थाय छे, ने सम्यक्चारित्र पण ते ध्यानथी ज थाय छे. परंतु कोई विकल्पनी प्रवृत्तिथी के जडनी क्रियाथी सम्यग्दर्शन
ज्ञान के चारित्र थतां नथी. रागनी एकाग्रता छोडीने, स्वरूपनी एकाग्रता करवी ते ज सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र छे.
एकला ज्ञानस्वभावमां एकाग्रता करतां ज रागादिनी चिंता तूटी जाय छे ते ज ‘एकाग्र चिंता निरोध’रूप ध्यान छे,
ने ते ज मोक्षमार्ग छे.