गाथा–१८
: ११० : आत्मधर्म : चैत्र : २००६ :
(१३५) स्वश्रयभव त ज सम्यग्दशन छ. : – ध्यान एटले स्वरूपनो आश्रय; जेटलो स्वाश्रयभाव तेटलो
मोक्षमार्ग; ने जेटलो पराश्रयभाव तेटलो बंधमार्ग. सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते स्वाश्रयभाव ज छे.
प्रश्र :– ज्यारे स्वाश्रय करे त्यारे सम्यग्दर्शन थाय, के ज्यारे सम्यग्दर्शन थाय त्यारे स्वाश्रय प्रगटे?
उत्तर :– जे पर्याये स्वाश्रय कर्यो ते पोते ज सम्यग्दर्शन छे. तेथी तेमां पहेलांं–पछी एवा भेद नथी.
पर्याय स्वाश्रयमां ढळी ते ज सम्यग्दर्शन छे. स्वाश्रय पर्याय अने सम्यग्दर्शन जुदां नथी. त्रिकाळस्वभावना
आश्रये ज मोक्षमार्ग छे. ।१७।
(१३६) परमात्मस्वभाव केवो छे : – आत्मानो त्रिकाळस्वभाव केवो छे ते विशेष वर्णवे छे –
जो णिय भाउ ण परिहरइ जो पर भाव ण लेइ।
जाणइ सयलु वि णिच्चु पर सो सिउ संतु हवेइ।। १८।।
भावार्थ :– जे परमात्मस्वभाव छे ते पोताना स्वभावने कदी छोडतो नथी, ने परभावने कदी लेतो
नथी; पण सदाय सर्वनो मात्र जाणनार छे, ते ज शिवस्वरूप तथा शांतस्वरूप छे.
(१३७) नजस्वभवन अश्रय कर. : – आत्मामां वकिारी अवस्था अनादथिी होवा छतां त्रकिाळी
परमात्मशक्ति कदी छूटी गई नथी. स्वभाव त्रिकाळ एवो ने एवो छे. आत्मानी परमात्मशक्ति त्रिकाळ
पूरेपूरी छे. माटे आचार्यदेव कहे छे के हे जीव, तुं मुंझा नहि, तारो त्रिकाळस्वभाव नाश पामी गयो नथी. तारा
निजस्वभावनो कदी पण नाश थतो नथी, पण सदाय एवो ने एवो पूरेपूरो छे, माटे आनंदथी तेनो आश्रय
कर, तेनुं ध्यान कर.
(१३८) उद्धत्त स्वभाव अने तेने स्वीकारनार पयार्य : – जिनेन्द्रदेवना १००८ नामोमां एक ‘उद्धत्त’ एवुं
नाम आवे छे, एटले के हे जिनेश! जगतना अंनत जीवोमांथी कोईने पण आपे गणकार्या नहि, भक्तोनी पण
दरकार करी नहि, ने उद्धत थईने केवळज्ञान पामी मुक्त थया. तेम आत्मानो त्रिकाळ स्वभाव कदी कोईनी
दरकार करतो नथी, विकार रहित शुद्ध छे. स्वभाव त्रिकाळ शुद्ध छे, पण ते शुद्धस्वभावने माने छे कोण? तेने
माननारी तो पर्याय छे. ते पर्याय निर्मळ थाय छे. द्रव्य–गुण त्रिकाळ शुद्ध छे, उद्धत छे, त्रिकाळ स्वभावमां कदी
विकारनुं ग्रहण थतुं ज नथी. एवी जे शुद्धद्रव्यनी द्रष्टि ते कोई विकारने स्वीकारती नथी. त्रणकाळमां मारा
स्वरूपमां में विकारनुं ग्रहण ज कर्युं नथी–एम पर्यायमां प्रतीति करे छे.
(१३९) भगवानपणुं अने पामरपणुं : – ‘हुं त्रिकाळ भगवान ज छुं, मारा स्वभावमां पामरता नथी’–आवी
स्वभावद्रष्टि ते ज धर्म छे. अज्ञानीने पोतानुं भगवानपणुं प्रतीतमां बेसतुं नथी, पण पामरता ज भासे छे, ए
पर्यायद्रष्टि छे; एवी पामरतानी द्रष्टि तो अनादिथी छे, ने तेथी ज मिथ्यात्व छे, पण पर्यायमां पामरता होवा
छतां त्रिकाळी स्वभावनी द्रष्टिमां तेनो स्वीकार नथी. त्रिकाळी चैतन्य स्वभावनुं काम तो जाणवा– देखवानुं ज
छे. एवो शांतस्वरूप त्रिकाळमुक्त आत्मा छे तेनुं ज ध्यान करवुं योग्य छे.
(१४०) ‘िसद्धसमान सदा पद मेरो’ अेवी अोळखाणनुं फळ. : – आत्मानो स्वभाव त्रिकाळ परमात्मारूप ज
छे, सदा सिद्धसमान ज छे. नाटक समयसार (पृ. १२) मां पं. श्री बनारसीदासजी कहे छे के–
चेतनरूप अनूप अमूरति, सिद्ध समान सदा पद मेरो।
मोहमहातम आतम अंग, कियौ परसंग महा तम धेरौ।
ग्यानकला उपजी अब मोहि, कहौं गुननाटक आगम केरौ।
जा सु प्रसाद सधै सिवमारग, वेगि मिटे भव वास बसेरो।। ११।।
भावार्थ :– आमां पहेलांं तो पोतानो त्रिकाळी सिद्धसमान स्वभाव स्थापीने पछी ते स्वभावनी द्रष्टिनुं
फळ बताव्युं छे; द्रव्यद्रष्टि अने पर्यायद्रष्टि बंनेनुं कथन तेमां आवी जाय छे. तेमां कहे छे के, मारुं स्वरूप सदैव
चैतन्यरूप, उपमारहित अने अमूर्त सिद्धसमान छे; हुं त्रिकाळ सिद्ध छुं. स्वभाव तो त्रिकाळ आवो ज छे परंतु,–
अत्यार सुधी पर्यायमां तेने भूलीने मोहथी आच्छादित अंध–अज्ञानी थई रह्यो हतो. पण हवे त्रिकाळ
सिद्धस्वभाव छे एना आश्रये मने ज्ञानज्योति प्रगट थई छे तेथी हुं नाटक–समयसार ग्रंथ कहुं छुं! अर्थात्
आत्मानो स्वभाव वर्णवुं छुं, जेना प्रसादथी (–परमात्मस्वभावना प्रसादथी) मोक्षमार्गनी सिद्धि