Atmadharma magazine - Ank 078
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: १०४ : आत्मधर्म : चैत्र : २००६ :
लोकोए मानी लीधुं छे एवुं धर्मनुं स्वरूप नथी. धर्म तो अंदर आत्मानो निर्मळ प्रगट थतो पर्याय छे.
आत्मानी निर्विकारी शुद्ध दशा छे. सिद्ध भगवान जेवो परमानंदनो अंश छे. लोको बाह्य जडनी क्रियामां के
पुण्यमां धर्म माने छे ते अज्ञान छे, भ्रम छे. तेनाथी जीवनुं परिभ्रमण मटे नहि.
श्रीमद्नो भव – अंत विषे पडकार
श्रीमद्ने नानी उंमरथी ज अंतरथी पडकार आवतो के मारे भव न जोईए तेमणे घणे ठेकाणे भवअंतने
विषे लख्युं छे :–
‘कायानी विसारी माया, स्वरूपे शमाया एवा,
निर्ग्रंथनो पंथ भवअंतनो उपाय छे.’
जाणनार–देखनार चैतन्यमां भव एटले अज्ञान, रागद्वेष अने तेना कारणे परिभ्रमण छे ते कलंक छे.
माटे मारे भव जोतो ज नथी. भव एटले विकारी भावो; पुण्य–पापना विकारो रहित हुं केवळ जाणनार–
देखनार–आनंद–स्वरूप छुं. मारा त्रिकाळी स्वरूपमां भव नथी. मात्र वर्तमान हालतमां विकार छे ते मारुं खरुं
स्वरूप नथी. तेथी विकार अने तेनुं फळ–भव मारे जोतां नथी.
प्रश्न :– भव होय तो बीजा जीवोनुं भलुं करी शके ने? जो भव होय तो शरीर होय, अने शरीर होय तो
बीजानी सेवा वगेरे करी शकीए! माटे भव शुं खोटा छे?
उत्तर :– अरे भाई! एक पदार्थ बीजा पदार्थनुं कांई भलुं–बूरुं करी शके ते वात ज तद्न खोटी छे. सामा
जीवनुं भलुं–बूरुं थवुं, सुखी–दुःखी थवुं तेना परिणामने आधारे छे. तेने बीजो जीव सुखी–दुःखी करी शके नहि.
वळी सामा जीवने दुःख के सुख बाह्य संयोगोने कारणे नथी. पर पदार्थथी मने सुख–दुःख थाय छे एवी अज्ञान
मान्यताथी, परमां सुख–दुःखनी कल्पना करे छे. खरेखर ते कल्पना तेने कल्पित सुख
[खरेखर जे दुःख ज छे]
अने दुःखनुं कारण छे. सामो जीव तेनी कल्पना छोडे तो खरुं सुख पामे. माटे कोई जीव कोई जीवने सुख करे
एवी मान्यता तद्न भ्रम छे. वळी तेने माटे भवनी मागणी जे करे ते पण तद्न मूढ छे. बधा जीवो साचुं
समजवानो पुरुषार्थ न करे. कोई अल्प जीवो सत्य समजवानो पुरुषार्थ करे अने तेमनो भव अंत थाय. माटे
जीवे पोतानुं कल्याण करवा माटे पोतानुं स्वरूप समजीने परिभ्रमणनो अंत करवो. माटे भव ज न जोईए,
भव अंतना आ टाणां आव्यां छे. साचुं समजवाना टाणां आव्यां छे, त्यां अंतर समजवानो पुरुषार्थ करे तो
शीघ्र भवनो अंत थई जाय. वळी लोको माने छे के परनुं कंई भलुं करीए. पण भाई! परनुं भलुं कोण करी शके
छे? सौथी नजीकमां रहेला आ शरीरमां कोढनां चांदणां थया होय तेने पण फेरवी नथी शकतो तो पछी दूर एवा
पर पदार्थोमां ते शुं करे? शुं तेने कोढनां चांदणां राखवानो भाव छे? चांदणा शरीरनी अवस्था छे. शरीरने–ते
परमाणुओने–जे समये जे रूपे परिणमवुं होय तेम परिणमे छे. अचेतन जड शरीर पोतानी अवस्था बदलवाने
स्वतंत्र छे. तेमां बीजा कोईनो हाथ काम न करे एटले के तेने बीजो कोई पदार्थ पलटावी शके नहि, माटे हे
जीव! परना करवापणानी मान्यता ने तुं छोड! ते अज्ञान मान्यता छोडवी ए राग–द्वेष वगेरेने छोडवा ते
निर्ग्रंथनो पंथ–भवना नाशनो उपाय छे.
सम्यग्ज्ञानी साधक जीवने पुरुषार्थनी कचाशने लीधे राग, विकल्प रही गयो, तेना कारणे एकाद भव
होय खरो, परंतु निर्ग्रंथनो मार्ग भव बतावतो नथी; ते तो भवथी रहित केवळ स्वभाव ज बतावे छे.
ईश्वर वीतराग छे, साक्षी छे. ते भव आपे नहि.
वळी केटलाक माने छे के, भगवान–ईश्वर भव आपे स्वर्ग आपे, ते वात साची नथी. भगवान तो
सर्वना जाणनार, वीतराग निर्दोष छे. तेने कोईने भव के स्वर्ग आपवानी ईच्छा होय नहि. जो तेने ईच्छा
कल्पो तो भगवान सर्वना साक्षी–ज्ञाता अने निर्दोष–राग–विकार रहित रहेता नथी, भगवान दोषी थई जाय,
पण एम बनतुं नथी. माटे भगवान सर्वज्ञ, ईच्छा रहित, वीतराग छे. ते कोईने स्वर्ग आदि आपे नहि.
स्वर्गादि गति जीव पोताना शुभादि परिणामथी प्राप्त करे छे.
परिभ्रमणना नाशनी अंतरधगश
भाई! तने भवभ्रमणनो त्रास थयो छे? ‘मारे हवे भव न जोईए, आत्मानी साची ओळखाण करीने
तेनो हवे अंत लाववो छे.’ एवी अंदरथी धगश थई छे? श्रीमद् राजचंद्रने नानी उंमरथी ज अंदरमांथी पडकार
आवतो के, ‘मारे आ भव–आ परिभ्रमण न जोईए.’ आत्मा पर पदार्थना आश्रय रहित स्वतंत्र