नथी, तेने आत्मानुं अज्ञान होवाथी भावमरण समये समये थया ज करे छे.
भगवान कहेता नथी ते तो बाळमरण छे. तेना फळमां जीव कागडा–कूतरा वगेरे तिर्यंच आदि चारे गतिमां
रखडे छे.
आधि छे. रोग एटले शरीरमां ताव आववो, गूमडां, भगंदर वगेरेने व्याधि कहे छे. रोग–नीरोग लोकोनी
कल्पना छे. खरेखर तो शरीरना परमाणुनी ते काळे तेवी दशा थवाने योग्य होय छे तेथी ते उष्ण अथवा
सडवारूप परिणमे छे. लोको पोतानी कल्पना अनुसार शरीर ठंडुं होय, अवयवो ठीक होय, शरीर पुष्ट होय तेने
नीरोगपणुं माने छे. ज्यारे तेनी कल्पनाथी बीजा प्रकारे शरीरनुं परिणमन होय त्यारे तेने ते रोग कहे छे.
खरेखर परमाणुमां रोग–नीरोग एवां नाम लख्या नथी. रोग संबंधी जीवनी आकुळता, दुःख ने व्याधि कहेवाय
छे. अने स्त्री, पुत्र, धन, लक्ष्मी, आबरू वगेरे बाह्य संयोगो प्रत्येनी जीवनी ममताने उपाधि कहे छे.
पदार्थो तथा रागादि विकारी भावो मारुं स्वरूप नथी, एवी आत्मानी साची समजण करीने ‘आ हुं आत्मा
ज्ञान अने निराकुळ सुखस्वभाव ज छुं’ एम रागथी–विकल्पथी भिन्न पोताना शुद्ध आत्मानो अनुभव करवो
ते प्रथम सम्यग्दर्शनरूप समाधि छे. आ ज धर्मनो प्रथम एकडो छे. आवा आत्माना भान अने अनुभव
सहित, देह छूटे तेने वीतराग सर्वज्ञदेव समाधि–मरण कहे छे. भगवाने पंडितमरणनुं स्वरूप आवुं बताव्युं छे.
पुण्य, दया, दान, हिंसा आदिना भावो राग एटले आकुळतानुं तोफान होवाथी तेओ आंधि छे. तेनाथी भिन्न
पोताना त्रिकाळी स्वभावने ओळखीने ते रागादिथी पार थवुं ते आधिथी छूटवानो उपाय छे, आधिथी विरुद्ध
समाधि छे.
बांध्या होय, तेना हाथ फरता पंदर आंटा दीधा होय, परंतु ते पुरुषे प्रयत्नथी सळवळ सळवळ करीने ते
दोरडाने ढीलुं करी पांच आंटा उखेळी नाख्या, पांच आंटा ऊखळ्या त्यां त्यार पछीना बीजा पांच आंटा ढीला
पडी गया अने छेल्ला पांच आंटा हजु सहेज कठण छे, पण तेने अंतर खातरी थई गई के हमणां आ बीजा
पांच आंटाने उखेळी छेल्ला पांच आंटाने ढीला करी आखुं य बंधन काढी नाखीश. आवी खातरी तेने प्रथमथी
ज आवी जाय छे. तेम आत्मस्वभावनी अंतःरुचि वडे जीवे साची ओळखाण करी त्यां देहादि तथा पुण्य–पापना
भावो मारा छे एवी अज्ञान मान्यतारूप बंधन प्रथम ज फडाक दईने तूटी गयुं. ते साची मान्यता थता वेत ज–
बंधनो एक भाग छूटतां ज राग–द्वेष आदि ढीला थई गया. हजु अस्थिरता छे, राग छे, साक्षात् श्रेणि अने
केवळज्ञाननो पुरुषार्थ नथी ऊपडतो, एटलो छेल्लो भाग सहेज कठण छे, परंतु स्वभावना पुरुषार्थ वडे
अल्पकाळमां आत्मस्वरूपमां स्थिर थई राग–द्वेषने टाळी केवळज्ञान प्रगट करीश. अस्थिरतारूप बंधनने तोडीने
हुं थोडा काळमां पूर्ण परमात्मपदने पामीश एवी खातरी अंतरथी पोताना आत्मानी साक्षीए, ज्ञानीने थया
वगर रहेती नथी. माटे आत्मा धर्म करे अने अंतरथी भवछूटकारानो नाद न आवे एम बने ज नहि. परंतु ते
धर्म केवो?