Atmadharma magazine - Ank 078
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २००६ : आत्मधर्म : १०३ :
तेने समाधिमरण कहेता नथी; भले पछी एककोर खाडामां जईने श्वास चडावीने दटाई जाय, पण ते समाधि
नथी, तेने आत्मानुं अज्ञान होवाथी भावमरण समये समये थया ज करे छे.
प्रभु आत्मा! बहुश्रुत थईने स्वभावना भान विना तें बाळमरण बहु कर्यां. चैतन्य स्वभावना
भानपूर्वक देह छूटे तेने भगवान समाधि–मरण कहे छे. भान विना देह छूटे तेने समाधि मरण–पंडित–मरण
भगवान कहेता नथी ते तो बाळमरण छे. तेना फळमां जीव कागडा–कूतरा वगेरे तिर्यंच आदि चारे गतिमां
रखडे छे.
आधि, व्याधि उपाधि अने समाधिनुं स्वरूप
आधि, व्याधि, अने उपाधि रहित ते समाधि. आत्मा शांति अने आनंद स्वभाव छे, तेनी वर्तमान
दशामां परने लक्षे दया, दान वगेरे शुभभाव अने हिंसा जूठुं वगेरे अशुभभावना विकल्पो–उत्थानो थाय ते
आधि छे. रोग एटले शरीरमां ताव आववो, गूमडां, भगंदर वगेरेने व्याधि कहे छे. रोग–नीरोग लोकोनी
कल्पना छे. खरेखर तो शरीरना परमाणुनी ते काळे तेवी दशा थवाने योग्य होय छे तेथी ते उष्ण अथवा
सडवारूप परिणमे छे. लोको पोतानी कल्पना अनुसार शरीर ठंडुं होय, अवयवो ठीक होय, शरीर पुष्ट होय तेने
नीरोगपणुं माने छे. ज्यारे तेनी कल्पनाथी बीजा प्रकारे शरीरनुं परिणमन होय त्यारे तेने ते रोग कहे छे.
खरेखर परमाणुमां रोग–नीरोग एवां नाम लख्या नथी. रोग संबंधी जीवनी आकुळता, दुःख ने व्याधि कहेवाय
छे. अने स्त्री, पुत्र, धन, लक्ष्मी, आबरू वगेरे बाह्य संयोगो प्रत्येनी जीवनी ममताने उपाधि कहे छे.
आ प्रमाणे आधि, व्याधि, अने उपाधिरूप जीवना विकारी भावो छे. तेओ अज्ञान, रागद्वेष अने
आकुळताळा छे. ते त्रण भावोथी रहित हुं चैतन्य जाणनार–देखनार, शांतस्वरूप, आनंदनो पिंड छुं, बधा बाह्य
पदार्थो तथा रागादि विकारी भावो मारुं स्वरूप नथी, एवी आत्मानी साची समजण करीने ‘आ हुं आत्मा
ज्ञान अने निराकुळ सुखस्वभाव ज छुं’ एम रागथी–विकल्पथी भिन्न पोताना शुद्ध आत्मानो अनुभव करवो
ते प्रथम सम्यग्दर्शनरूप समाधि छे. आ ज धर्मनो प्रथम एकडो छे. आवा आत्माना भान अने अनुभव
सहित, देह छूटे तेने वीतराग सर्वज्ञदेव समाधि–मरण कहे छे. भगवाने पंडितमरणनुं स्वरूप आवुं बताव्युं छे.
जीवने मनना संबंधे पुण्य–पापना भावो थाय ते आधि; खरेखर पुण्य–पापना भावो आत्मानुं स्वरूप
नथी, पण आत्माना स्वभावनो घात करनार छे. जगतमां जेम पवननुं तोफान थतां आंधि चढे छे तेम आ
पुण्य, दया, दान, हिंसा आदिना भावो राग एटले आकुळतानुं तोफान होवाथी तेओ आंधि छे. तेनाथी भिन्न
पोताना त्रिकाळी स्वभावने ओळखीने ते रागादिथी पार थवुं ते आधिथी छूटवानो उपाय छे, आधिथी विरुद्ध
समाधि छे.
साची समजण थतां अल्पकाळमां परमात्म – पद पामवानी खातरी
जीवनमां, धर्म करीए छीए एम जीव माने, परंतु अंतर आत्माथी तेने खातरी न थाय के मारे हवे
भवबंधन छूटवानुं छे तो तेनुं जीवन अने तेणे करेलो धर्म शो? लोकमां पण कोई पुरुषना हाथ दोरडा वती
बांध्या होय, तेना हाथ फरता पंदर आंटा दीधा होय, परंतु ते पुरुषे प्रयत्नथी सळवळ सळवळ करीने ते
दोरडाने ढीलुं करी पांच आंटा उखेळी नाख्या, पांच आंटा ऊखळ्‌या त्यां त्यार पछीना बीजा पांच आंटा ढीला
पडी गया अने छेल्ला पांच आंटा हजु सहेज कठण छे, पण तेने अंतर खातरी थई गई के हमणां आ बीजा
पांच आंटाने उखेळी छेल्ला पांच आंटाने ढीला करी आखुं य बंधन काढी नाखीश. आवी खातरी तेने प्रथमथी
ज आवी जाय छे. तेम आत्मस्वभावनी अंतःरुचि वडे जीवे साची ओळखाण करी त्यां देहादि तथा पुण्य–पापना
भावो मारा छे एवी अज्ञान मान्यतारूप बंधन प्रथम ज फडाक दईने तूटी गयुं. ते साची मान्यता थता वेत ज–
बंधनो एक भाग छूटतां ज राग–द्वेष आदि ढीला थई गया. हजु अस्थिरता छे, राग छे, साक्षात् श्रेणि अने
केवळज्ञाननो पुरुषार्थ नथी ऊपडतो, एटलो छेल्लो भाग सहेज कठण छे, परंतु स्वभावना पुरुषार्थ वडे
अल्पकाळमां आत्मस्वरूपमां स्थिर थई राग–द्वेषने टाळी केवळज्ञान प्रगट करीश. अस्थिरतारूप बंधनने तोडीने
हुं थोडा काळमां पूर्ण परमात्मपदने पामीश एवी खातरी अंतरथी पोताना आत्मानी साक्षीए, ज्ञानीने थया
वगर रहेती नथी. माटे आत्मा धर्म करे अने अंतरथी भवछूटकारानो नाद न आवे एम बने ज नहि. परंतु ते
धर्म केवो?