मान्यता होवी तेने श्रीमद्दे भावमरण कह्युं छे. ते भावमरण भवचक्रनुं–परिभ्रमणनुं कारण छे.
रह्या छो? क्षण क्षण भावमरण एटले समये समये पर्याये पर्याये अज्ञानभावने लईने आत्माना स्वरूपनी
अणसमजणरूप भावमरण–आत्ममरण थई रह्युं छे, तेनुं अज्ञानीने भान नथी अने तेमां ज रुचिथी–होंशथी
राचि रहे छे. ज्ञानी कहे छे अहो! जीवो तमे तेमां केम राचि रहो छो!
पर्यायोनुं क्षेत्र पोताना असंख्य प्रदेश जेवडुं छे. जीव अंदर स्वभावमांथी, स्वक्षेत्रमांथी, पोतानी हयातीमांथी
सुखनो प्रयत्न न करतां, स्वसत्ताथी बहार, देह, वाणी तथा पुण्य आदि विकारी भावोमांथी सुख प्राप्त करवा
जतां अंतर चैतन्य स्वभावनी जागृतिनो नाश थाय छे. तेने लेश तो लक्षमां–ख्यालमां लहो.
चैतन्यस्वभावनी द्रष्टिना जोरे जे आत्माना परिणाम एटले भाव थाय तेने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानस्वरूप
आत्मानुं काम कह्युं छे. आ सिवाय लक्ष्मी वगेरे जडना संयोगो, देहादि जडनी क्रिया के पुण्य–पापना विकारी
भावोने आत्मानुं खरुं कार्य कह्युं नथी छतां तेनाथी तथा तेनी वृद्धिथी आत्मानुं हित मानवुं ते भावमरण छे.
वळी लक्ष्मी अने अधिकार वगेरे प्राप्त करवाना वलणवाळा भाव वडे आत्मा सुखनुं टळे छे ए आकुळता वधे
छे. तेने लेश तो लक्षमां ल्यो!
भगवान–थया ते आत्मामांथी थया के बहारथी थया? परिपूर्ण सुखी अने परिपूर्ण ज्ञानी श्री वीतराग
अरिहंतदेव आत्मानी स्वसत्तामांथी थया छे. बहारथी–देहथी–वाणीथी तेओ सुखी थया नथी. माटे देह वगेरे
बाह्य पदार्थो आत्माना सुख माटे साधन नथी. जेओ देहने के बाह्य संयोगोने सुखनुं साधन–कारण माने छे ते
मान्यता तेमनो भ्रम छे, अज्ञान छे, मिथ्या मान्यता छे.
करतां अज्ञानी जीवने अनंतकाळथी परिभ्रमण थई रह्युं छे. एक मात्र आत्मानी साची समजण कर्या विना
अज्ञानने लईने अनंतवार गलुडिया वगेरेना भव धारण कर्या. अरे! जैनना नामे, जैननो द्रव्यलिंगी साधु
थईने पण आ शरीरादिनी क्रिया मने धर्मनुं साधन छे अने व्रत वगेरे पुण्यभावो करतां करतां धर्म एटले
आत्मानुं कल्याण थई जशे,’ एवी अज्ञान मान्यता राखीने जीवे अनंतवार मिथ्या मान्यतारूप आत्ममरण
एटले के भावमरण कर्यां.
भवथी रहित,–त्रिकाळी चैतन्यस्वभावने समज! ते समजण भवभ्रमण अथवा भावमरण टाळवानो उपाय छे.
आवा यथार्थ भानपूर्वक आत्माने देहनुं छूटवुं तेने समाधिमरण अथवा पंडितमरण कहे छे. अने ‘हुं जाणनार
ज्ञातास्वभाव ज छुं, परनी क्रियानो कर्ता–हर्ता हुं नथी, पुण्य वगेरे राग भावो मारुं स्वरूप नथी. राग तो
आकुळता छे. तेनाथी भिन्न अंतर स्वभावनी शांति, चैतन्यमां आनंदना शेरडा ऊठे ते मारो स्वभाव छे;’
आवा भाव विना, ‘शरीरनो हुं स्वामी छुं, शरीर वडे में आटलां कार्य कर्यां, परनां भलां कर्यां वगेरे परना
कर्तापणानी अज्ञान मान्यतापूर्वक देह छूटे ते बाळमरण छे, अज्ञान मरण छे, ज्ञानीओ