Atmadharma magazine - Ank 078
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २००६ : आत्मधर्म : १०१ :
आ आत्मा ज्ञानस्वरूप, आनंद कंद, जेवो त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर भगवाने जोयो छे तेवो तेने समजवो
अने राग, दया, दान वगेरे विकारी भावोनो स्वभावनी रमणता–स्थिरता वडे नाश करवो–अंतरंग राग रहित
शांति प्रगट करवी ते समाधि छे. आ सिवाय लोको श्वासने रोकवा वगेरेनी क्रियाने समाधि माने छे ते समाधि
नथी. श्वास रोकावो ते जडनी क्रिया छे. तेना उपर आत्मानो अधिकार नथी. आत्मानो अधिकार अंदर
आत्मानी शांति उपर छे, पर पदार्थ उपर नहि. श्वासनुं ऊंचुं–नीचुं थवुं ते जडनी क्रिया छे, अने ते तरफना
लक्षवाळी रागनी क्रिया हठ क्रिया छे. ते आत्मानी समाधि नथी; ते आकुळता छे; आत्मानी साची ओळखाण
करीने जे स्वभावनी शांति–स्वरूपसमाधि–प्रगट करे छे तेनां भावनिद्रा तथा भावमरण नाश पामे छे. एटले
परथी मने लाभ थाय एवी मिथ्या मान्यता नाश पामे छे.
आ आत्माने ‘परथी मने लाभ थाय, हुं पर पदार्थनुं करी शकुं छुं’ एवी जे मान्यता थवी तेने भाव
मरण कहे छे, श्रीमद्दे सोळ वर्षनी उंमरे ‘अमूल्य तत्त्व–विचार’ मां भावमरण विषे कह्युं छे–
‘बहु पुण्य केरा पुंजथी शुभ देह मानवनो मळ्‌यो,
तोये अरे! भवचक्रनो आंटो नहि एके टळ्‌यो;
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो;
क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रहो?’
सोळ वर्ष पछीनुं आ काव्य छे. नानपणथी ज तेमने भवना अंत उपर खूब वजन छे, भवना नाशनी
खूब तालावेली छे. अनंतकाळथी नहि समजायेल आत्मस्वरूपने अपूर्व पुरुषार्थ वडे स्वभावना प्रयत्न द्वारा
समजीने फडाक दईने भवनो नाश न थाय तो पुरुषार्थ अने समजणनी अपूर्वता शी? अनंतकाळे प्राप्त थवो
दुर्लभ एवा आ मनुष्य भवमां आत्मानी ओळखाण करी आत्मस्वभावथी विरुद्ध एवा भवभ्रमणना मूळनो
नाश न करे तो मनुष्यभवनी कांई गणतरी नथी. जगतमां गलुडिया अने अणसियां जन्मीने मरे छे तेम
मनुष्यभव पामीने पण अज्ञानमां जीवन वितावीने मरे तो गलुडियाना भवमां अने मनुष्यना भवमां कांई
तफावत नथी. बहु पुण्यना योगथी एटले के पूर्वना कोई दयादि मंद कषायना फळरूपे दुर्लभ मनुष्यभव मळ्‌यो.
आ मनुष्यभवमां आत्माना स्वरूपने समजवानी मुख्यता छे माटे तेने शुभदेह कह्यो. देहने शुभ कहेवो ते
व्यवहारनुं कथन छे. मानवदेह पामीने आत्मा जो देह, वाणी अने राग वगेरेथी रहित त्रिकाळी आत्मानुं स्वरूप
ओळखवानो प्रयत्न करे, समजे तो देहने शुभपणानो उपचार आवे छे. पण जो आत्मानी ओळखाण न करे तो
तेने शुभनो व्यवहार आवतो नथी. पण गलुडियां वगेरेनी पेठे भावमरण–अज्ञानमरण–बाळमरण, करीने मरे
तेने ते भववृद्धिनुं निमित्त कहेवाय छे.
आवो दुर्लभ मनुष्यभव प्राप्त थयो छतां, अरेरे भव परिभ्रमणनो एक आंटो पण टळ्‌यो नहि? एने
ए चार गतिनां भ्रमण ऊभां रह्यां. आत्माना साचा स्वरूपने समज्या विना पर पदार्थमां पोतानुं स्वरूप–
परपदार्थमां सुख–मानी मानीने भ्रमण कर्युं! पण अहो जगतना जीवो! जरा विचार तो करो! के बाह्य सुख
प्राप्त करतां अंतरनुं सुख टळे छे. शरीरमां, विषयोमां सुख छे, तेमांथी मने सुख प्राप्त थशे एवी मान्यताथी,
परमां ज भटकवाथी पोताना अंतरंग स्वभावनुं सुख–अंतरंग शांति टळे छे. विषयोमां सुख नथी, सुख
आत्मानो स्वभाव छे. तेने बहारमां गोततां अंतरनुं सुख टळे छे अने आकुळता उत्पन्न थाय छे. लेश ए लक्षे
लहो. लेश एटले जरी एने लक्षमां–ख्यालमां तो ल्यो. अंतर धीरा थई जरी विचार तो करो के मारुं सुख परमां
न होय. प्रथम लेश तो लक्ष करो, स्थिरतानी वात पछी, प्रथम सत्यने लक्षमां तो ल्यो!
देहनी सोळ वर्षनी उंमर टाणे आ वात आवी छे. उंमर आत्माने लागु पडती नथी. बधा आत्मा
अनादिथी वर्तता वर्तमान वर्ती रह्या छे. कोई आत्मा वर्तमान समयथी आगळ वधीने भविष्यमां गयो नथी.
माटे खरेखर वृद्ध के जुवान कोने कहेवा? बधा आत्मा अनादिना छे. कोई नाना मोटा नथी. देहनी स्थितिने
लईने व्यवहारे कहेवाय छे पण तेम खरेखर नथी.
जगतना अनंत चैतन्य आत्माओ अने अनंत जड पदार्थो–परमाणु वगेरे पदार्थो अनादि अनंत छे.
त्रिलोकीनाथ तीर्थंकर भगवाने तेमनी सत्ता–होवापणुं जेम जोयुं छे तेम तेओनी सत्ता–हयाती पोताने लईने छे.
माटे कोईनी सत्ता कोई पदार्थ उपर काम करे नहि. दरेके दरेक पदार्थ पोतानी हयातीथी काम करी रह्यां