शांति प्रगट करवी ते समाधि छे. आ सिवाय लोको श्वासने रोकवा वगेरेनी क्रियाने समाधि माने छे ते समाधि
नथी. श्वास रोकावो ते जडनी क्रिया छे. तेना उपर आत्मानो अधिकार नथी. आत्मानो अधिकार अंदर
आत्मानी शांति उपर छे, पर पदार्थ उपर नहि. श्वासनुं ऊंचुं–नीचुं थवुं ते जडनी क्रिया छे, अने ते तरफना
करीने जे स्वभावनी शांति–स्वरूपसमाधि–प्रगट करे छे तेनां भावनिद्रा तथा भावमरण नाश पामे छे. एटले
परथी मने लाभ थाय एवी मिथ्या मान्यता नाश पामे छे.
तोये अरे! भवचक्रनो आंटो नहि एके टळ्यो;
सुख प्राप्त करतां सुख टळे छे लेश ए लक्षे लहो;
क्षण क्षण भयंकर भावमरणे कां अहो राची रहो?’
समजीने फडाक दईने भवनो नाश न थाय तो पुरुषार्थ अने समजणनी अपूर्वता शी? अनंतकाळे प्राप्त थवो
दुर्लभ एवा आ मनुष्य भवमां आत्मानी ओळखाण करी आत्मस्वभावथी विरुद्ध एवा भवभ्रमणना मूळनो
मनुष्यभव पामीने पण अज्ञानमां जीवन वितावीने मरे तो गलुडियाना भवमां अने मनुष्यना भवमां कांई
तफावत नथी. बहु पुण्यना योगथी एटले के पूर्वना कोई दयादि मंद कषायना फळरूपे दुर्लभ मनुष्यभव मळ्यो.
आ मनुष्यभवमां आत्माना स्वरूपने समजवानी मुख्यता छे माटे तेने शुभदेह कह्यो. देहने शुभ कहेवो ते
व्यवहारनुं कथन छे. मानवदेह पामीने आत्मा जो देह, वाणी अने राग वगेरेथी रहित त्रिकाळी आत्मानुं स्वरूप
ओळखवानो प्रयत्न करे, समजे तो देहने शुभपणानो उपचार आवे छे. पण जो आत्मानी ओळखाण न करे तो
तेने शुभनो व्यवहार आवतो नथी. पण गलुडियां वगेरेनी पेठे भावमरण–अज्ञानमरण–बाळमरण, करीने मरे
तेने ते भववृद्धिनुं निमित्त कहेवाय छे.
प्राप्त करतां अंतरनुं सुख टळे छे. शरीरमां, विषयोमां सुख छे, तेमांथी मने सुख प्राप्त थशे एवी मान्यताथी,
परमां ज भटकवाथी पोताना अंतरंग स्वभावनुं सुख–अंतरंग शांति टळे छे. विषयोमां सुख नथी, सुख
आत्मानो स्वभाव छे. तेने बहारमां गोततां अंतरनुं सुख टळे छे अने आकुळता उत्पन्न थाय छे. लेश ए लक्षे
लहो. लेश एटले जरी एने लक्षमां–ख्यालमां तो ल्यो. अंतर धीरा थई जरी विचार तो करो के मारुं सुख परमां
न होय. प्रथम लेश तो लक्ष करो, स्थिरतानी वात पछी, प्रथम सत्यने लक्षमां तो ल्यो!
माटे खरेखर वृद्ध के जुवान कोने कहेवा? बधा आत्मा अनादिना छे. कोई नाना मोटा नथी. देहनी स्थितिने
लईने व्यवहारे कहेवाय छे पण तेम खरेखर नथी.
माटे कोईनी सत्ता कोई पदार्थ उपर काम करे नहि. दरेके दरेक पदार्थ पोतानी हयातीथी काम करी रह्यां