Atmadharma magazine - Ank 078
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: १०० : आत्मधर्म : चैत्र : २००६ :
मिथ्या मान्यता तेमज दया वगेरे शुभरागना भावथी रहित चैतन्य जाणनार–देखनार स्वभावनी ताकातवाळो
आ मारो आत्मा छेे एम न मानतां विपरीत मान्यताथी तथा रागादि भावोथी आत्मानुं कल्याण थाय एवी
मान्यता ते भावनिद्रा छे. आ भावनिद्रा रहित आत्मानुं त्रिकाळी जागृत–जाणनार–देखनार स्वरूप जेवुं छे तेवुं
बराबर समजवुं ते भावनिद्रा टाळीने स्वभावमां जागृत थवानो उपाय छे. ते ज कल्याण तथा आत्महितनो
मार्ग छे.
आत्मानी आ यथार्थ वात बधाए समजवानी छे. बाळ, जुवान तथा वृद्ध बधानो आत्मा आ वात
समजी शके तेम छे केमके आत्मा कोई जुवान–वृद्ध के बाळक नथी. अनादिना बधा आत्मा वर्तता वर्तता
वर्तमान क्षण सुधी आव्या छे. कोई आत्मा भविष्यनी क्षणमां वर्तमान पहोंची गयो नथी. माटे कोई नानुं मोटुं
नथी. जे कांई नाना मोटानो भेद लोको वडे मानवामां आवे छे ते मात्र शरीरनां हाडकां तथा चरबीनी पुष्टि
तथा कृशतानी अपेक्षाए छे. शरीर पुष्ट होय, शरीरमां चरबीना खूब रजकणो होय तेने लोको जुवान माने छे.
शरीर कृश होय–चरबी घटी गई होय, चामडीमां लीलरी पडी गई होय तेनेे लोको वृद्ध माने छे, पण तेमां
आत्मा कोई नानो मोटो नथी. कोई पांच पचीश वर्ष पहेलांं आ शरीरमां आव्यो अने कोई पांच पचीश वर्ष
पछी आ शरीरमां आव्यो तेथी आ वर्तमान शरीरमां आववानी अपेक्षाए नाना मोटाना भेद कहेवाय छे. माटे
कोई आत्मा नानो मोटो नथी; तेथी बधा आत्मा पोताना स्वभावने समजी शके छे अने अनादिथी चाली
आवती भावनिद्राने टाळी शके छे.
आ भगवान आत्मा आ देहादिनी अवस्थाथी तो पार छे. पण जे दया–दान पूजानी वृत्तिनुं शुभ
उत्थान थाय के जेने त्रिलोकनाथ तीर्थंकर भगवान पुण्य एटले के शुभ विकार कहे छे तेनाथी चैतन्यने लाभ
थाय एवी मान्यता तेने पण भावनिद्रा तथा भावमरण कह्यां छे.
यथार्थ समाधिमरण एटले अज्ञान अने राग–द्वेष स्वरूप भावमरणथी रहितदशा शुं छे? तेनी वात
चाले छे. श्रीमद् राजचंद्र देहनी अंतस्थिति वखते अहीं राजकोटमां तेमने घरे आराम खुरशीमां बेठा हता.
तेमना भाई, मनसुखभाई, तेमना माता तथा तेमना बनेवी वगेरे कुटुंबीजनो ओरडा बहार बेठा हता. तेमणे
छेल्ले मनसुखभाईने कह्युं हतुं के भाई मनसुख मने कोई बोलावशो नहि, हुं मारा आत्मस्वरूपमां स्थिर थाउं
छुं. ए प्रमाणे श्रीमदे शरीरादिथी भिन्न आत्माना स्वभावना भानपूर्वक अंतर लीनतारूप समाधिपूर्वक–अंतर
स्वभावनी आनंददशामां देह छोड्यो. आवा मरणने समाधिमरण कहे छे.
श्रीमद्ने आत्मस्वभावनी जागृति एटले परथी अने रागादि विकारी भावोथी रहित त्रिकाळी चैतन्य
स्वभावनुं ज्ञान घणा वर्षो पहेलांंथी थयुं हतुं. ते सम्यग्ज्ञानना बळवडे देहनी अंतस्थितिमां तेमने समाधि
मरण एटले के आत्मानी अंतरशांतिपूर्वक देहनुं छूटवुं थयुं. श्रीमद्दे अंदर आत्म स्वभावनी ओळखाण तथा
स्वभावनी शांति पोताना आत्मामांथी प्रगट करी हती. तेमणे बहारमां कांई कर्युं न हतुं. तेओ गृहस्थ हता.
बायडी, छोकरा, वेपार, धंधो वगेरे हता. बहारमां अनेक संयोगोनी नजीकमां होवा छतां तेनाथी भिन्न
आत्मानुं भान तेमने हतुं, तेथी तेमने अंतर समाधि अने शांति हती. वळी दान दयादि भावो राग छे, विकार
छे, तेना तरफ वलणनी लागणीथी जीवने आकुळता थाय छे, असमाधि थाय छे. अने पर पदार्थनुं ग्रहण–त्याग
करी शकातुं ज नथी, केमके भिन्न हयाती धरावती चीज पोताथी स्वयं वर्ती रही छे, तेनुं परसत्ता द्वारा ग्रहण–
त्याग थई शके नहि. जो परसत्ता द्वारा परसत्तानां ग्रहण–त्याग थाय तो तेनी भिन्न सत्ता हयातीरूप न रहेतां
तेनो नाश थाय, पण एम कदी बनतुं नथी. आवुं अपूर्व भेदविज्ञान श्रीमद्ने हतुं. पूर्वना संस्कार तथा अपूर्व
वर्तमान पुरुषार्थ द्वारा तेमने आवुं आत्मस्वभावनुं ज्ञान थयुं हतुं. पूर्वना संस्कार होय पण वर्तमाने ते
संस्कारनुं स्मरण करी चालु राखवा ते वर्तमान नवो पुरुषार्थ छे. ते वर्तमान नवा पुरुषार्थ वडे ‘हुं आत्मा
त्रिकाळी चैतन्य जाणनार देखनार छुं. देह, वाणी तथा रागादि दोषोथी रहित जुदो छुं.’ एवुं भान तेमने हतुं.
अने आवुं आत्मानुं यथार्थ भान–साची समजण करवी ते अपूर्व नवुं–अनादिथी नहि करेलुं–करवानुं छे. आ
सिवाय जगतमां बीजुं कांई अपूर्व नथी.