Atmadharma magazine - Ank 078
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र : २००६ : आत्मधर्म : ९९ :
अल्प काळमां मारी मुक्ति थशे. आत्मानुं भान थतां प्रथम आवुं सम्यग्ज्ञान थाय छे. ते सम्यग्ज्ञानमां आत्माने
एवो भास थाय के अल्प काळमां मारी परमात्मपदनी प्राप्तिनो काळ छे. परमात्मपदनी प्राप्तिनो उपाय अथवा
परमात्मपदनी प्राप्तिनो साचो पंथ–एकावतारी थवानो काळ मुख्यपणे मनुष्यदेहमां थाय छे.
श्रीमद् राजचंद्रनुं घणी नानी वयमां देहावसान थयुं हतुं. मात्र तेत्रीश वर्षनी नानी उंमरे तेमनो देह
छूट्यो हतो. तेमने नानी उंमरना जातिस्मरण एटले पूर्व भवोनुं स्मरण थयुं हतुं. पूर्वना संस्कार अने ज्ञाननो
उघाड तेमने घणो हतो. तेमणे १६ वर्षनी उंमर पहेलां ‘पुष्पमाळा’ रची हती; तेमां प्रथम ज आ वाक्य लख्युं
छे के :–
‘रात्रि व्यतिक्रमी गई, प्रभात थयो, निद्राथी मुक्त थवा भावनिद्रा टाळवानो प्रयत्न करजो.’
शरीरनी आटली नानी बाळवयमां प्रथम ज आ वाक्य लखाणुं छे. तेमना अक्षरदेहनुं आ प्रथम वाक्य
छे. तेमां आत्माने अज्ञानरूप भावनिद्राने टाळी अंतरग स्वभावनी जागृति करवा माटे कह्युं छे. जीव अनादिथी
शरीर मारुं छे; शरीरनां तथा बहारनां बीजा पदार्थोनां कार्यो मारे लईने थाय छे, राग–द्वेष, पुण्य–पापना
विकारी भावो मारा छे एम पर पदार्थने तथा अज्ञानादि विकारी भावोने पोताना माने छे. ते मान्यता भूल
छे, भ्रम छे, मिथ्या छे. आ मिथ्या मान्यता जीव–पोतानां मूळ शुद्ध स्वरूपनुं भान नहि होवाथी–वर्तमान
दशामां–हालतमां अनादिथी कर्या करे छे. ते भूलने लईने जीव रखडे छे अने जुदा जुदा अवतारो धारण करीने
दुःखी थाय छे.
जीवने थती ते भूलने टाळवानो उपाय पण एक ज छे. श्रीमदे् पोते आत्मसिद्धिमां कह्युं छे के :–
‘एक होय त्रण काळमां, परमारथनो पंथ;’
आत्माना परमार्थ स्वभावनी जागृतिना पंथ विधविध होता नथी. स्वभावनी अंतर जागृतिनो पंथ
त्रणेकाळे एक ज होय छे, बीजो पंथ होतो नथी. जीवे जे शरीरादि बाह्य पदार्थोने तथा दया, दानादि विकारी
भावोने पोताना मान्या छे, तेनाथी भिन्न पोताना त्रिकाळी चैतन्य स्वभावने पर तथा विकार रहित ओळखवो
एटले के आत्मानी यथार्थ श्रद्धा–ज्ञान अने स्वभावमां स्थिरतारूप चारित्र करवुं ते, भावनिद्रा एटले भूल–
भ्रमण टाळवानो एक ज उपाय छे.
रात्रि व्यतिक्रमी गई, सवार थई (बाह्य) निद्राथी जागृत थया, परंतु भावनिद्रा टाळवा प्रयत्न करजो.
भावनिद्रा एटले पर पदार्थथी मने लाभ–नुकसान थाय; हुं पर पदार्थने लाभ–नुकसान करी शकुं तेवी मिथ्या
मान्यता, तेने टाळवा प्रथम प्रयत्न करजो. अहीं बीजुं कांई करजो. परनी दया पाळजो, परनी सेवा करजो वगेरे
कांई कह्युं नथी; पण प्रथम ज मिथ्या मान्यतारूपी भावनिद्रा टाळजो एम कह्युं छे; कारण के कोई पदार्थ कोई पर
पदार्थनी सेवा के भलुं कांई करी शकतो नथी. दरेक प्रदार्थ भिन्न सत्तावाळो छे. ते पोतानी सत्ता–हयाती–
अस्तित्व पोताथी ज धरावे छे. ते पदार्थनुं भलुं–बूरुं पोताना अस्तित्वमां–पोतानी सत्तामां थाय छे. तेनी
सत्तामां भलुं–बूरुं बीजो कोई पदार्थ करी शकतो नथी केमके बंने पदार्थनी सत्ता भिन्न भिन्न छे. भावनिद्रा
एटले के भूल–मिथ्या मान्यता पोताना पर्यायनी सत्तामां–पोतानी हालतमां थाय छे तेथी ते भावनिद्राने
टाळवानो उपदेश कर्यो छे.
त्रिलोकीनाथ तीर्थंकरदेवे आत्मानुं स्वरूप परिपूर्ण प्रत्यक्ष एक समयमां–नानामां नाना काळमां जाण्युं छे.
तेमणे पोते जाणीने आ आत्मानुं स्वरूप कह्युं छे के आ आत्मा स्वभावनी एटले अनंत गुणोनी खाण छे. तेमां
ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य वगेरे अनंत गुणो छे. आवा अनंत स्वभावनी महिमावाळा आत्माने ओळख्या
विना, ‘आ शरीर मारुं छे, तेना बधां कार्यो मारा कर्यां थाय छे, शरीरने चलाववुं, खवराववुं, पिवराववुं वगेरे
ईच्छा प्रमाणे हुं करी शकुं छुं,’ तेम शरीरमां एकत्व बुद्धि मारापणानी मान्यता तथा ‘पुण्य–पापना भाव, दया,
दानना विकारी भाव मारा छे, तेना वडे मारुं कल्याण थशे, बहारनी अनुकूळ सामग्री होय तो मारुं हित थशे’ –
एवी त्रिकाळ स्वाधीन चैतन्यस्वभावने चूकीने पराधीन मान्यता ते भावमरण अथवा भावनिद्रा छे. आवी