Atmadharma magazine - Ank 079
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २००६ : आत्मधर्म : १२९ :
वर स. २४७३ भदरव सद १२ (१) दसलक्षण पवन उत्तम त्यग दन (८)
[] त्त त् र् : आजे उत्तम त्याग धर्मनो दिवस छे; उत्तम त्याग ते सम्यक्चारित्रनो
प्रकार छे, ने ए चारित्रनुं फळ परमात्मदशा छे. दसे प्रकारना उत्तम धर्मो छे ते सम्यक्चारित्रना ज प्रकार छे, अने
सम्यग्दर्शनपूर्वक ज ते होय छे. मिथ्याद्रष्टिने ते कोई धर्म होता नथी.
[] द्धत् ध् म्ग्र्ि प्र : अनादिकाळथी कदी नहि प्रगटेल एवुं अपूर्व सम्यग्दर्शन
केम प्रगटे तेनुं अहीं वर्णन चाले छे. त्रिकाळ मुक्त आत्म–स्वभाव छे; तेने पुण्य–पाप नथी, हर्ष–शोकना भाव तेनामां
नथी अने क्षुधादि कोई दोष नथी. एवो निजशुद्धात्मा छे, तेने हे प्रभाकरभट्ट! तुं जाण, अने तेनो अनुभव कर. जे
वीतरागी निरंजन स्वभाव छे ते ज उपादेय छे, ते ज ध्याववा योग्य छे. एना ध्यानथी ज सम्यग्दर्शन प्रगटे छे, ने
एना ध्यानथी ज सम्यक्चारित्र तथा परमात्मदशा प्रगटे छे.
[] द्धत्ध् , व्ध् : ज्ञानार्णव वगेरे शास्त्रोमां व्यवहारध्यानना घणा
प्रकारोनुं वर्णन छे, ते बधा प्रकार पर तरफना विकल्पोथी खसीने अंदर वळवा माटे छे. पण अहीं सूत्रकार कहे छे के
शुद्धात्म–स्वरूपना ध्यानमां ते सर्वेनो निषेध छे. शास्त्रमां व्यवहारध्यानना जेटला प्रकार वर्णव्या छे ते बधाय
शुभविकल्प छे. पहेलांं व्यवहारध्यानना बधा प्रकारो करी ल्ये अने त्यार पछी ज शुद्धात्मानुं ध्यान जामे–एवुं नथी.
व्यवहारना कोई पण विकल्प वडे शुद्धात्मानुं ध्यान थतुं नथी, शुद्धात्माना ध्यानमां ते बधानो अभाव छे; जेटला
व्यवहारध्यानना प्रकारो वर्णव्या छे ते बधाय, शुद्धात्माना ध्यान पहेलांं जे विकल्प वर्ततो होय तेनुं ज्ञान कराववा माटे
छे. गृहस्थ सम्यग्द्रष्टि जीव ध्यान करवा बेसे त्यारे जो वेपारादिना विकल्पो आवतां होय तो ते खसेडवा माटे अने
चित्तनी एकाग्रता माटे प्रथम एम व्यवहारध्यान चिंतवे के ‘मारा अंतरमां एक मोटुं कमळ छे, ने तेमां अरिहंत
भगवान बिराजे छे, तेमनो दिव्यध्वनि छूटे छे, ते सांभळीने हुं सम्यग्ज्ञान पामुं छुं, ने पछी स्वरूपनुं ध्यान करतां
करतां मने केवळज्ञान थाय छे, तथा चार अघाति कर्मनो पण नाश थईने हुं सिद्ध थउं छुं.’ आवा प्रकारना विकल्पो
पहेलांं आवे, पण ते विकल्प तो राग छे, तेने ज्ञानीओ ध्यान मानता नथी. चैतन्यनी एकाग्रता वडे ते विकल्पने पण
तोडी नांखीने, एकला चैतन्यना आनंदनो अनुभव रही जाय ते ज ध्यान छे, ने ते ज कर्तव्य छे. ।। १९,२०,२१।।
[] द्धत् ? : शुद्धात्माना स्वभावमां धारणा, यंत्र, मंत्र, जाप, वगेरेनो पण निषेध छे एम हवेनी
गाथामां कहे छे–
(गाथा – २)
जासु ण धारणु धेउ ण वि जासु ण जंतु ण मंतु।
जासु ण मंडलु मुद्द ण वि सो मुणि देउ अणंतु।।
२२।।
भावार्थ :– जे परमात्माने कुंभक वगेरे धारणाओ नथी, प्रतिमा वगेरे ध्येय नथी, अक्षरोनी रचना वगेरेरूप
यंत्रो नथी, मंत्रो नथी, तथा वायुमंडळ वगेरे नथी अने द्रव्यार्थिकनयथी जे अविनाशी अनंत ज्ञानादिस्वरूप छे तेने
परमात्मदेव जाणो. द्रव्यार्थिकनयथी आत्मामां ध्यान पण नथी, केमके ध्यान पण पर्याय छे.
[] द्धत् प्र : अहीं, शुद्धात्मस्वरूपनो अनुभव करवा माटे तेनाथी विरुद्ध एवा
चार प्रकारोनो त्याग करवानुं कहे छे.
१. अतीन्द्रिय आत्मिक सुखना स्वादथी विपरीत एवां जे जिह्वाईन्द्रियना विषय तेने (रसगृद्धिने) जीतीने,
२. निर्मोह शुद्धस्वभावथी विपरीत एवा मोहभावने छोडीने,
३. वीतरागी सहजआनंद परम समरसीभाव सुखरूपी रसना अनुभवना जे शत्रु एवा नव प्रकारना कुशीलने
छोडीने, अने–
४. निर्विकल्प आत्मसमाधिना घातक एवा मनना संकल्प–विकल्पोने छोडीने, हे प्रभाकरभट्ट! तुं शुद्धात्मानो
अनुभव कर.
१. पांच ईन्द्रियना विषयोमां रस मुख्य छे, २. बधा विकार–भावमां मोह मुख्य छे, ३. पांच अव्रतमां अब्रह्म
मुख्य छे अने, ४. असमाधिनुं कारण संकल्प–विकल्प छे, तेथी ते चारे छोडाव्या छे. त्यां ‘रस’ कहेतां तेमां स्पर्शादि बधा
विषयो पण आवी जाय छे, ‘मोह’ कहेतां तेमां बीजा सर्व विकारभावो आवी जाय छे, ‘अब्रह्म’ कहेतां तेमां हिंसादि
अव्रत आवी जाय छे, अने ‘संकल्प–विकल्प’ कहेतां तेमां सर्वे शुभाशुभ भावो आवी जाय छे. ए चारथी विरुद्धपणे
आत्माना स्वभावमां १–अतीन्द्रिय आत्मिक सुखनो रस श्रेष्ठ छे, २–मोहरहित शुद्धस्वभाव छे, ३–सहज परमानंदमय
वीतरागी भावरूप शुद्ध ब्रह्मस्वभाव छे, अने ४–सहज निर्विकल्प परम समाधिरूप स्वभाव छे. माटे ईन्द्रियोना विषयोनी
तथा विकारनी रुचि छोडीने–एटले के अतीन्द्रिय चैतन्यस्वभावनी रुचि करीने तेनो अनुभव कर. –एम श्री गुरुओनो
उपदेश छे. अहीं भेदथी चार प्रकार पाडीने विशेषपणे समजाव्युं छे; खरेखर तो जीव ज्यारे पोताना चैतन्यस्वरूपने
अनुभवे त्यारे उपर्युक्त चारे प्रकारोनो तेने अभाव होय ज छे.