Atmadharma magazine - Ank 079
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २००६ : आत्मधर्म : १३३ :
अवगुण नथी ने सधनता ते गुण नथी; रोग ते अवगुण नथी ने निरोगता ते गुण नथी, अनाबरू ते अवगुण नथी ने
आबरू ते गुण नथी; काळु–कूबडुं शरीर होय ते अवगुण नथी ने रूपाळुं शरीर होय ते गुण नथी. आ प्रमाणे कोई परने
लईने आत्माने सुख–दुःख के गुण–अवगुण नथी. पण क्षुधा, तृषा वगेरे अवस्था शरीरमां थतां ‘आ मने थाय छे’ एवी
मिथ्याद्रष्टिनी मान्यता ते ज अवगुण छे अने ते ज दुःख छे.
भगवान आत्मा ज्ञानानंद स्वरूप छे, स्वभावनी अनाकुळतानो पिंड–पर्वत प्रभु चैतन्य छे, तेने स्वभावमां दुःख
नथी तेम ज संयोगनुं पण दुःख नथी. परंतु वच्चे जडनी अवस्थामां रोग वगेरे थतां आ मने थयुं–एवी जे परमां
पोतापणानी मान्यता ऊभी करे छे ते अधर्म अने दुःख छे. धर्मी जीवने ते मान्यता टळी गई छे. आत्माना स्वभावनी
शांतिमां धर्मीने कष्ट छे एम मानवुं ते भगवाने कहेला धर्मनो अनादर छे, एटले पोताना शांतिस्वभावनो पण अनादर
छे. धर्मीजीव आत्मस्वभावनी द्रष्टिथी क्षणे क्षणे शांतिनो अनुभव करे छे. कष्ट अने कलेश भोगववा पडे एवुं धर्मीनुं
जीवन नथी पण क्षणे क्षणे आत्मानी अपूर्व शांतिनो अनुभव थाय एवुं धर्मीनुं जीवन छे.
–आवुं जीवन भगवान महावीरे अने सर्वे धर्मात्माओए गाळ्‌युं छे, वर्तमानना धर्मात्माओ तेवुं जीवन गाळे छे
अने भविष्यना धर्मात्माओ तेवुं ज जीवन गाळशे. भगवान महावीरना आत्माए आवुं जीवन कर्युं हतुं; एनुं लोकोने
भान नथी एटले बहारथी भगवाननुं माप काढे छे. भगवान जंगलमां एकला रह्या, ने रोटला न खाधा तथा भगवान
नग्न रह्या माटे भगवान दुःखी हता, –आम कहेवुं ते वस्तुना स्वभावने विकृत करीने सर्वज्ञनो अनादर करवा जेवुं छे. शुं
जंगलमां रह्या के रोटला न खाधा तेथी भगवानने दुःख हतुं? ना. ते क्षणे भगवान तो पोताना अतीन्द्रिय आनंदना
भोगवटामां लीन हता.
अहो, घरमां खोटो रूपियो न आवी जाय ते माटे साचा–खोटा रूपियानी परीक्षा करवा रूपिया खखडाववानो
पथरो राखे, परंतु अहीं धर्ममां अखंड चैतन्यपिंड आत्मा कोण छे अने तेनो धर्म कई रीते छे? तेनी परीक्षा करतो नथी.
धु्रवस्वभावना आश्रये सम्यक्श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रना अंशो प्रगटावीने रोकडीओ धर्म लेवो छे, तो तेनी परीक्षा करीने
साचा–खोटानी ओळखाण करवी जोईए.
आदि–अंत वगरनो, ज्ञानदर्शनस्वभावनो सागर आत्मा छे, तेनी सन्मुख थईने आत्मावडे निर्मळ परिणाम करवामां
आवे छे; भगवान महावीरे तेवा परिणाममां जीवन गाळ्‌युं हतुं. पहेलेथी एटले के धर्मी थया त्यारथी ते मुक्त थया त्यां सुधी
भगवाने आवुं जीवन कर्युं हतुं. भगवाननो आत्मा अने मारो आत्मा स्वभावे सरखा छे, हुं पण मारी जाते स्वसन्मुख
श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र प्रगट करीने भगवान थई शकुं छुं. आ आत्मा सिवाय देव–गुरु–शास्त्र पर छे, तेनामां आ आत्मानुं
कल्याण करवानी ताकात नथी. तेम ज तेमनी सन्मुख भक्तिनो जे शुभराग थाय ते शुभरागमां पण आत्मानुं कल्याण
करवानी ताकात नथी. पोताना स्वभावनी सन्मुखताथी ज कल्याण प्रगटे छे. महावीर भगवाने आम कर्युं छे ने आम कह्युं छे.
जे आनाथी विरुद्ध मार्ग कहे ते भगवानने, भगवानना कहेला शास्त्रोने के संतोने जाणतो नथी. आत्मा–सन्मुख जेनी द्रष्टि
नथी एवा अज्ञानीनो एक अक्षर पण साचो होय नहि; भगवानना समवसरणमां बेठो होय ने दिव्यध्वनि सांभळतो होय ते
वखते पण तेनुं वलण परसन्मुख छे. अज्ञानीनो वेलो ज आखो कडवो छे अर्थात् तेनी द्रष्टि ऊंधी होवाथी क्षणे क्षणे विकारनी
ज उत्पत्ति थाय छे. ने ज्ञानीने स्वसन्मुख अमृतनी वेल छे एटले स्वभावसन्मुखद्रष्टिथी तेने क्षणे क्षणे पर्यायनी निर्मळता
वधे छे. मिथ्याद्रष्टिने मूळमां ज परने लीधे ज्ञानादि थवानी मान्यता छे ते ज भूल छे.
निमित्तने लीधे आत्माने ज्ञान थाय–ए वात तो क्यांय गई, पण अहीं तो आचार्यदेव कहे छे के निमित्तना लक्षे
थता विकल्प अने खंडज्ञान उपरनी बुद्धि पण मिथ्यात्वने उत्पन्न करनारी छे. अखंड चैतन्यना स्वभावमां खंडखंड ज्ञानरूप
भावेन्द्रियनो अभाव छे. भावेन्द्रिय तो आत्माना अनंतज्ञाननो एक अंश छे, ते अंश जेटलो ज आखा आत्माने माने
तेने स्वभावसन्मुखद्रष्टिनो अभाव छे. जेवा महावीर भगवान छे तेवी ज जातना बधा आत्मा छे, स्वभाव सामर्थ्यमां
कांई फेर नथी; भगवानने सर्वज्ञ–परमात्मदशा प्रगटी छे ने आ जीवने अधूरुं ज्ञान छे–एम वर्तमान अवस्थामां फेर छे. ते
अवस्थाने गौण करीने स्वभावसन्मुखबुद्धि करवी ते मोक्षनुं कारण छे ने परसन्मुखबुद्धि ते संसारनुं कारण छे.
महावीर भगवाने पोताना जीवनमां स्वभावसन्मुखबुद्धि करीने श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रना निर्मळ परिणामने कर्या; ने
अत्यारे मोक्षमां पण एवुं ज कार्य करे छे. सम्यग्दर्शनथी मांडीने सादि–अनंत मोक्षदशा सुधी धर्मी जीव पोताना ज्ञानमय
वीतरागी परिणामने ज करे छे, पण परने के विकारने करतो नथी.
जेम माटी पोते अंतर्व्यापक थईने घडारूपी कार्यने करे छे, तेम भगवाननो आत्मा शरीर–मन–वाणी वगेरे जडनी
अवस्थामां अंतर्व्यापक थईने तेने करतो नथी, पण पोताना श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रना निर्मळ वीतरागी परिणाममां
अंतर्व्यापक थईने तेने ज करे छे.
प्राप्य–विकार्य अने निर्वर्त्य–एवुं त्रण प्रकारनुं कर्म छे. माटीमांथी घडो थाय तेने कुंभार करतो नथी पण माटी ज करे
छे. घडारूप कर्मने माटी ज पहोंची वळे छे तेथी घडो ते माटीनुं प्राप्यकर्म छे. घडो थवानो जे स्वकाळ हतो त्यारे घडो