भगवान आत्मानुं प्राप्य नथी. वाणीना शब्दो थाय तेने जड परमाणुओ पहोंची वळे छे, वाणी ते भगवान आत्मानुं
प्राप्यकर्म नथी एटले के आत्माए ते वाणी करी नथी. वाणी ते परमाणुओनो स्वकाळ छे, ते वखते आत्मा पोताना
स्वकाळमां निर्मळ परिणामने करे छे. एटले महावीर भगवाने वाणीने करी नथी.
भाषाना परमाणुओ ज भाषारूपे तेने पहोंची वळ्या छे. समवसरणमां दिव्य–वाणी छूटी ते वखते भगवान महावीर
तो पोतानी केवळज्ञान–पर्यायमां पहोंची वळ्या छे. भगवाने तो ते समयनी पोतानी वीतरागी केवळज्ञानदशाने प्राप्त
करी छे. भगवाने दिव्यध्वनिथी उपदेश आपीने चार तीर्थनी स्थापना करी–एम कहेवुं ते व्यवहारनुं कथन छे. चार
तीर्थमां साधु, अर्जिका, श्रावक अने श्राविका ए दरेक जीवोए पोतपोतानी सम्यग्दर्शन वगेरे निर्मळ पर्यायने पोतानी
योग्यताथी ज प्राप्त करी छे, भगवाने तेमनुं कांई कर्युं नथी.
ते ते क्षणे आत्मावडे करवामां आवता केवळज्ञानरूप परिणामने ज कर्या छे. अज्ञानी जीव विकारीभाव करीने तेनो कर्ता
थाय छे. परनुं तो कोई जीव करी शकतो नथी. हुं परनुं करुं ने पर मारुं करे–एम जे माने ते मिथ्याद्रष्टि छे. हुं परनुं करुं
नहि ने पर मारुं करे नहि–एम नक्की कर्युं पछी कोना सामे जोवानुं रह्युं? पोताना ज्ञानस्वभाव सामे ज जोवानुं रह्युं,
एटले स्वसन्मुख निर्मळ पर्याय थवा मांडी, ते धर्मीनो धर्म छे. हे भाई! पोतामां स्वभावबुद्धि छोडीने तुं परनो
आश्रय माने तो भगवान शुं करशे तने? भगवान सामे द्रष्टि करे तोपण भगवान तारुं कांई करी दे तेम नथी. तुं
तारा स्वभाव तरफ द्रष्टि वाळ तो तने धर्मनी शरूआतथी मोक्षसुधी वच्चे दुःख नथी; दुःख के अणगमो होय ते धर्म
नथी, अने धर्ममां दुःख नथी.
अंर्तशक्तिमांथी शांतिना परिणाम व्यक्त करतो, ते–रूपे परिणमे छे, तेने ऊपजावे छे अने तेने प्राप्त करे छे. आ ज
धर्मीनुं धर्मकार्य छे. अज्ञानी जीव रागादिनो कर्ता थईने ते रागादि परिणामने पकडे छे; अने परने करवानुं ते माने छे,
परंतु परना कार्यने तो ते जीव पण करी शकतो नथी. दरेक पदार्थ भिन्न भिन्न छे, अने सौ सौनुं कार्य पोतपोतामां ज
छे. भगवाने पोतामां निर्मळ श्रद्धा–ज्ञान–चारित्ररूप कार्य कर्युं छे, ए सिवाय बहारमां कांई कर्युं नथी.
एम धर्मी मानतो नथी. पर्यायबुद्धिवाळो माने छे के ईन्द्रियो होय तो मने ज्ञान थाय, अने रागने लीधे मने ज्ञान
थाय. धर्मी जीव ते ईन्द्रियने के रागने ग्रहतो नथी. हुं शुद्ध चैतन्य ज्ञानानंद छुं–एम पोताना स्वभावने जाणतो थको
धर्मी जीव निर्मळ परिणामने करे छे. स्वसन्मुख श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र थया ते पोताना वीतरागी परिणामने धर्मी जीव
जाणे छे, पण ते विकल्पने के जडनी दशाने पकडतो नथी.
स्वभावना भानमां भवनी शंका ज नीकळी गई छे. ‘अभव्य अने भव्य ते तो अरूपी भाव छे एटले ते तो केवळी
भगवान जाणे, आपणने तेनी खबर न पडे’ –आम जे माने छे तेने अंशमात्र धर्म नथी. अभव्य जीवनी अनंत
अनंत भवे पण मुक्ति थती नथी. ‘मारे हजी अनंतभव करवाना बाकी हशे’ एवी भवनी शंका जेने टळी नथी अने
‘हुं भव्य छुं, मारे हवे अनंतभव छे ज नहि, अल्पकाळे मारी मुक्ति छे’ –एवी यथार्थ निःशंकता जेने प्रगटी नथी, ते
जीव भवरहित एवा वीतरागी भगवाननी वाणीनी परीक्षा करवानी त्रेवड लावशे क्यांथी? सर्वज्ञ देवने पूर्णानंददशा
थईने भवरहित जीवन्मुक्तदशा थई, ते भवरहित पुरुषनी वाणीनी परीक्षा ‘भव्य–अभव्य’ नी शंकावाळो जीव करी
शकशे ज नहि. जे क्षणे क्षणे भवनी शंकामां पड्यो छे ते जीवमां भवरहित भगवानना वचन केवा होय तेनी परीक्षा
करवानी ताकात होय शके नहि. यथार्थ वस्तुस्वरूप समज्या वगर अने पोताना आत्मानो निर्णय कर्या वगर, महावीर
भगवानना नामे जेने जेम फावे तेम बोले छे, अने पोतानी कल्पनाने वर्द्धमानदेशना कहीने भगवानना नामे चडावे
छे, पण खरेखर तो तेमां मिथ्यात्वनुं पोषण होय छे. भगवानना आत्माए शुं कर्युं तेनुं अज्ञानीने भान नथी.