स्वभाव–सन्मुख वीतरागी परिणामरूपे ज थाय छे, अने तेने ज ग्रहे छे.
विकल्पने फेरवतो नथी अने जे समये जे पर्याय थाय छे. तेने फेरववानी बुद्धि नथी, एटले के तेने पर्याय उपरनी द्रष्टि
ज छूटी गई छे. फक्त वस्तुस्वभावनी सन्मुख बुद्धि थतां राग टळीने वीतरागपणे पर्याय पलटी जाय छे. कांई पण
फेरफार करवानो नथी. वस्तु–स्वभावने जेम छे तेम राखीने पोते स्वभावद्रष्टिथी निर्मळपणे पलटी जाय छे. आ
सिवाय पदार्थोमां के पोतानी अवस्थामां कांई फेरफार करवा मांगे तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. स्वभावसन्मुख द्रष्टि थतां, शुद्ध
स्वभावनी सन्मुख जे श्रद्धा–ज्ञाननी निर्मळ–पर्याय थई ते पर्याय पोते प्राप्यकर्म छे, धर्मी आत्मा तेनो कर्ता छे.
निर्मळदशा प्राप्त थई. ते निर्मळदशा व्याप्य छे ने आत्मा व्यापक छे. आत्मा ते निर्मळपर्यायमां द्रव्यवडे व्याप्यो छे;
पर्यायबुद्धिवडे, रागवडे के निमित्तवडे आत्मा निर्मळदशामां व्यापतो नथी पण द्रव्यवडे ज व्यापे छे. परसन्मुख जे दशा
हती ते पलटीने वस्तुस्वभाव–सन्मुख जे दशा थई ते दशा सम्यग्द्रष्टिनुं प्राप्यकर्म छे, एटले के ते ज धर्मीनुं धर्मकार्य छे.
ए सिवाय बहारमां क्यांय धर्मीनुं धर्मकार्य नथी.
निर्मळदशाने ज प्राप्त करे छे; ए सिवाय रागने, निमित्तने के परने प्राप्त करता नथी. द्रव्य पोते लंबाईने–प्रसरीने–
फेलाईने ते वीतरागी पर्यायमां व्याप्युं–फेलायुं; एटले धर्मी आत्मा कर्ता अने जे निर्मळ पर्याय थई ते तेनुं कर्म छे.
राग ते धर्मी जीवनुं व्याप्य नथी.
प्रगट थया–एम नथी. आत्मा पोते व्याप्यो अने निर्मळपरिणाम ते व्याप्य थया. वस्तुसन्मुख जे निर्मळपर्याय थई, ते
पर्यायमां आत्मा ज व्याप्यो छे. रागादिभावो थाय ते खरेखर धर्मी आत्मानुं व्याप्य नथी, पण जड पुद्गलनुं व्याप्य
छे. जे जीवनी द्रष्टि रागना कर्तापणा उपर पडी छे अने रागने ज पोतानुं व्याप्य समजे छे एवा मिथ्याद्रष्टिनुं लक्ष
पुद्गल उपर ज छे, तेथी आचार्यदेव तेने अचेतन–जड तरीके गणीने कहे छे के राग ते पुद्गलनुं ज व्याप्य छे.
प्रगट थई तेथी ते विकार्य कर्म छे. एवी निर्मळ विकार्यपर्यायमां धर्मी आत्मा व्याप्यो छे. प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य–
ए त्रणे बोल एक ज परिणाममां लागु पडे छे. द्रव्यना क्रममां जे परिणाम प्रगटवानो स्वकाळ हतो ते परिणाम
प्रगट्या अने आत्मा तेने पहोंची वळ्यो तेथी ते परिणाम प्राप्य छे. अने पूर्वना परिणाम पलटीने ते निर्मळपरिणाम
नवां प्रगट थया–ए अपेक्षाए ते ज परिणाम विकार्य छे. तथा पहेलांं ते परिणाम न हता ने आत्माए नवां उत्पन्न
कर्या–ए अपेक्षाए ते ज परिणाम निर्वर्त्य छे. आ रीते एक ज परिणाममां प्राप्य, विकार्य अने निर्वर्त्य–ए त्रणे बोल
लागु पडे छे, तेमां समयभेद नथी. आत्माए स्वभावसन्मुख द्रष्टि करी ते द्रष्टिरूप निर्मळपर्याय पोते प्राप्य छे तथा ते
ज विकार्य छे अने ते ज निर्वर्त्य छे. आ प्रमाणे प्राप्य–विकार्य अने निर्वर्त्य एवुं व्याप्यलक्षणवाळुं जे वीतरागी श्रद्धा–
ज्ञान–चारित्ररूप कर्म छे तेमां आत्मा ज व्यापक छे. ते वीतरागी निर्मळपरिणामरूपी कर्ममां आदि–मध्य ने अंतमां
आत्मा ज अंतर्व्यापक थईने कर्ता थाय छे. पहेलांं सम्यग्दर्शन तो आत्माने आश्रये थयुं, पण पछी चारित्र तो
पंचमहाव्रतना शुभरागथी थतुं हशे ने? –एम कोई कहे, तो कहे छे के–ना, शुभराग अंतर्व्यापक थईने वीतरागी
परिणाम थया नथी. पण वीतरागी परिणामरूपी धर्मकार्यमां पहेलेथी छेल्ले सुधी आत्मा ज अंतर्व्यापक थईने कर्ता
थाय छे. द्रव्य अने निर्मळपर्याय एक अभेद थई गया तेथी अहीं ‘अंतर्व्यापक’ एम कह्युं छे. खरेखर रागमां
अंतर्व्यापक आत्मा नथी. द्रव्य ज पोताना निर्मळ वीतरागी परिणाममां व्यापी गयुं, तेथी धर्मी आत्मा पोते
अंतर्व्यापक थयो. आ ज कर्तानुं कार्य छे, आवुं कार्य आत्मा करे तेनुं नाम ज धर्म छे. व्यवहार के निमित्तथी धर्म थतो
नथी; द्रव्यना आश्रये निर्मळपर्याय प्रगट थतां धर्म थाय छे. निर्मळपर्याय पोते ज धर्मीनुं धर्मरूपी कर्तव्य छे. तेना
आदि–मध्य ने अंतमां आत्मा ज अंतर्व्यापक छे. शरूआतमां निमित्तना लक्षे विकल्प ऊठ्यो ते कांई निर्मळ–दशामां
व्यापक थतो नथी.