Atmadharma magazine - Ank 079
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: वैशाख : २००६ : आत्मधर्म : १२५ :
वस्तुनी पर्यायो क्रमबद्ध–सर्वज्ञभगवाने जोया प्रमाणे ज थाय, तेमां फेरफार थाय नहि. परवस्तुनी पर्यायो तेना
द्रव्यमांथी क्रमबद्ध थाय छे अने मारी पर्यायो मारा द्रव्यमांथी क्रमबद्ध जेम छे तेम थाय छे. आ प्रमाणे, अक्रम एवा द्रव्यमां
बुद्धि थया विना क्रमनो निर्णय थाय नहि. क्रमबद्ध पर्यायनो निर्णय करतां बुद्धि स्वद्रव्यसन्मुख वळे छे. एटले क्रमबद्ध
पर्यायनो निर्णय कहो, द्रव्यनो निर्णय कहो, सर्वज्ञनो निर्णय कहो, द्रव्यद्रष्टि कहो के सम्यग्दर्शन कहो, तथा ज्ञायकभाव कहो के
यथार्थ पुरुषार्थ कहो,–एमांथी एक आवे तो तेमां बधुं आवी जाय छे. सर्वज्ञने अथवा तो क्रमबद्धपर्यायने स्वीकारे एटले
द्रव्यद्रष्टि तरफ वळ्‌ये ज छूटको; ए सिवाय सर्वज्ञने के क्रमबद्धपर्यायने यथार्थ स्वीकारी शके ज नहि.
‘सर्वज्ञदेवे जोयुं होय तेम थाय’ –एम सर्वज्ञनो निर्णय कर्यो त्यां पूर्ण ज्ञाननो निर्णय थयो. एटले अधूरुं ज्ञान
ते मारुं स्वरूप नथी पण पूर्णज्ञान ते मारुं स्वरूप छे–एम नक्की कर्युं; हवे जो पोतानी पर्यायसन्मुख जुए तो पर्यायमां
तो पूरुं ज्ञान नथी, एटले द्रव्य तरफ वळे छे. पूर्ण ज्ञाताद्रष्टा स्वभाव तरफ ढळतां विकल्प तूटीने सम्यक्श्रद्धा थई, तेनुं
नाम अपूर्व सम्यग्दर्शनधर्म छे. पहेलांं अपूर्णतामां ने विकारमां ज पूरुं स्वरूप मानतो, ते मिथ्याश्रद्धा टळीने पूर्ण
ज्ञाताद्रष्टा स्वभावनी सन्मुख थईने तेनी श्रद्धा करी. एटले हवे अवस्थामां अधूरुं ज्ञान होवा छतां, सर्वज्ञभगवान
जेम पूर्ण ज्ञाताद्रष्टा छे तेम ते धर्मी जीव पण ज्ञाताद्रष्टा थयो.
उपर प्रमाणे वीतरागी श्रद्धा–ज्ञानरूप धर्मपरिणामनी शरूआत थई तेमां आदिमां आत्मा ज व्यापक छे. पहेलांं
व्यवहार हतो अने ते व्यापक थईने धर्मदशा प्रगटी–एम नथी. आत्मा व्यापक थईने निर्मळ पर्याय खीली, त्यारे
विकल्पने व्यवहार तरीके जाण्यो. आ सिवाय, पहेलांं व्यवहारथी धर्म माने तो तेवो व्यवहार तो अनादिथी करतो
आव्यो छे. जे अनादिथी करे छे तेने पहेलुं केम कहेवाय? समयसारमां एकला व्यवहारने तो अनादिरूढ कह्यो छे. जेनी
द्रष्टि एकला व्यवहार उपर छे ते जीव अनादिरूढ व्यवहारमां मूढ छे. शरूआतमां आत्मा सन्मुख वळीने आत्मा
अंतर्व्यापक थया विना, अज्ञानी जीव धर्मनी आदिमां रागने अने व्यवहारने अंतर्व्यापक करवा मांगे छे, ते जीव
अनादिरूढ एवा व्यवहारमां मूढ छे, तेने धर्मनी आदि थती नथी.
आ चोथी भूमिकानी एटले धर्मने माटे पहेली भूमिकानी वात छे. चोथी भूमिका ते धर्मनी शरूआतनी भूमिका
छे. आ समज्या वगर धर्मनी शरूआत थती नथी.
परनी पर्याय अमुक प्रकारनी होय तो मने ठीक पडे अथवा तो अमुक प्रकारनो शुभभाव होय तो मने ठीक
पडे–ए मिथ्याद्रष्टिनी बुद्धि छे. आत्माना स्वभाव उपर द्रष्टि पडतां निर्मळदशा प्रगटीने तेमां आत्मा व्याप्यो, ते
धर्मीनुं धर्मकार्य छे.
आद्यमां तो आत्माना आश्रये सम्यग्दर्शन थयुं पण पछी मध्यमां तो पंचमहाव्रतना विकल्प वगेरेथी मुनिदशा
टके ने? –एम कोई शंका करे, तो श्री आचार्यदेव कहे छे के एम नथी. जे स्वभावना आश्रये धर्मनी शरूआत थई तेना
ज आश्रये धर्मदशा टकीने पूर्णता थाय छे. जेने पहेलेथी व्यवहारनी रुचि अने होंश पडी छे तेने तो धर्मनी शरूआत ज
थती नथी, तो पछी मध्य अने अंतमां शुं होय तेनी तेने शुं खबर पडे?
पहेलेथी धर्मी जीव जे स्वभावना आश्रये उपड्यो तेना ज आश्रये पर्याय परिणम्ये जाय छे; वच्चे राग अने विकल्प
आवे तेना अभावस्वभावरूपे परिणमन थाय छे. शास्त्र पण पर छे. साचा शास्त्रना भणतरना लक्षे पण स्वभावसन्मुख–
द्रष्टि थाय नहि. अस्तिस्वभावनी सन्मुख द्रष्टि थया विना शास्त्र–सन्मुखतानी द्रष्टि टळे नहि. पर तरफनुं वलण भूलवानुं
कहेवुं ते नास्तिथी कथन छे, पण क्ये ठेकाणे अस्ति राखीने ते भूलशे? अनंत गुणनो चैतन्यपिंड अस्तिस्वभावनी सन्मुख
द्रष्टि थतां परनी सन्मुखता छूटी जाय छे. आवी द्रष्टि सिवाय धर्म थाय–एवुं वस्तुस्वभावमां नथी. ‘अमारुं बधुं ऊडी जाय
छे’ –एम अज्ञानीओ पोकार करे तो करो, पण वस्तु तो आम छे, वस्तु पोते ज पोतानो पोकार करी रही छे.
पोताना आत्मा सिवाय सर्वज्ञने वच्चे नांखे–के सर्वज्ञ भगवानना आश्रये मारुं हित थशे, भगवाननी
भक्तिथी मारुं कल्याण थशे–एम माने–तो य आत्मानी निर्मळता प्रगटे तेम नथी. आत्मा ज्ञाताद्रष्टा सर्वज्ञशक्तिनो
पिंड पोते भगवान छे, तेनी द्रष्टि अने एकाग्रता करीने ते ज पोते वीतरागी धर्मरूपे परिणमीने आद्य–मध्य–अंतमां
व्यापे छे. धर्मीने पोताना स्वभावनी द्रष्टि थई त्यां, द्रव्य पोते रागरूपे न थतां वीतरागी परिणामरूपे थईने तेमां
व्याप्युं. पर्यायबुद्धिमां जे रागनी लायकात हती ते द्रव्यबुद्धि थतां छूटी गई, एटले वीतरागी श्रद्धा, ज्ञान अने अंशे
चारित्ररूप परिणाम प्रगट थयां, ते द्रव्यनो स्वकाळ छे, द्रव्यना स्वकाळमां ते अवस्था हती तेने द्रव्ये प्राप्त करी छे, तेथी
ते प्राप्य छे. अहीं निर्मळपर्यायने प्राप्यकर्म कह्युं, केमके ते निर्मळ पर्याय तेना स्वकाळे थई त्यारे द्रव्य तेने पहोंची वळ्‌युं
छे. कोई रागमां के पूर्वनी पर्यायमां ते निर्मळपर्यायने प्राप्त करवानी ताकात न हती. बारमा गुणस्थानना छेल्ला
समयनी पर्याय ते तेरमा गुणस्थानना पहेला समयनी पर्यायने प्राप्त करे छे–एम नथी; द्रव्य पोते ज पोतानी निर्मळ
पर्यायोने प्राप्त करे छे. अने निर्मळ अवस्था थई ते द्रव्यनुं प्राप्य छे. अहीं निर्मळ अवस्थाने द्रव्यनुं व्याप्य कहीने
आचार्यदेव ए बतावे छे के त्रिकाळ अने वर्तमान एक थया, एटले के द्रव्य अने निर्मळपार्यय अभेद थता जाय छे.
राग द्रव्यमां अभेद थतो न हतो पण निर्मळदशा द्रव्यमां अभेद थती जाय छे. आ ज धर्मीनुं कार्य छे.