Atmadharma magazine - Ank 080
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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जेठ: २४७६ : १४९:
(२) निमित्तना आश्रयने छोडीने उपादाननो आश्रय करवो.
(३) व्यवहारनो आश्रय छोडीने निश्चयनो आश्रय करवो.
(४) पर्यायनो आश्रय छोडीने द्रव्यनो आश्रय करवो.
वच्चे राग–निमित्त के व्यवहार भले हो, पण धर्मीनुं वलण तो शरूआतथी ज सम्यक् एकांत एवा
शुद्धपदनी प्रप्ति उपर ज छे. साधकदशानी शरूआतथी मांडीने पूर्ण परमात्मपदनी प्राप्ति थतां सुधी आवुं ज
वलण होय छे. वच्चे रागादि व्यवहार अने भंगभेद आवे ते जाणवा माटे छे, पण तेमां रुचि करीने अटकवा
माटे ते नथी. आ प्रमाणे नित्य–अनित्य, एक–अनेक, अभेद–भेद वगेरे बधा बोलमां समजी लेवुं. पूर्ण
परमात्मपद प्रगटी गया पछी एक तरफ ढळवानुं रहेतुं नथी, तेम ज तेमने नय पण होतो नथी.
वस्तु अनंतगुणनो पिंड छे. ते वस्तु तो छे छे ने छे, त्रिकाळ छे. ते वस्तु कांई नवी प्राप्त थती नथी,
परंतु तेनुं भान थईने सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्रवडे पूर्ण परमात्मपद प्रगटे तेनुं नाम निजपदनी प्राप्ति छे.
‘मूळमार्ग’ मां कहे छे के–
ते त्रणे अभेद परिणामथी रे ज्यारे वर्ते ते आत्मारूप... तेह मारग जिननो पामीयो रे, किंवा पाम्यो ते
निजस्वरूप... मूळ०
ज्यारे सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान ने सम्यग्चारित्र ए त्रणे अभेद परिणामे आत्मारूप वर्ते त्यारे ते जीव
जिननो मार्ग पाम्यो एटले के निजस्वरूपने पाम्यो. जिननो मार्ग कहो के निजस्वरूप कहो–ते कांई जुदा नथी.
लोको बहारमां जिननो मार्ग मानी बेठा छे, पण जिननो मार्ग बहारमां नथी, पोतानुं आत्मस्वरूप ते ज
जिननो मार्ग छे.
१–अवस्थामां अशुद्धता होवा छतां शुद्धस्वभाव उपर द्रष्टि,
२–पर निमित्तनुं लक्ष थवा छतां स्वद्रव्यनो आश्रय,
३–व्यवहार होवा छतां निश्चयनुं अवलंबन,
४–क्षणिक पर्यायना भेदो होवा छतां अभेद द्रव्य उपर द्रष्टि अथवा पर्यायोनी अनेकता होवा छतां
स्वभावनी एकतानो आश्रय,–आवो सम्यक् एकांत छे, अने एनी प्राप्ति कराववी ते ज अनेकांतनुं प्रयोजन छे.
निश्चयना अवलंबनथी धर्म थाय ने व्यवहारना अवलंबनथी पण धर्म थाय–एनुं नाम अनेकांत नथी, ते तो
मिथ्या एकांत छे. निश्चयना आश्रये धर्म थाय ने व्यवहारना आश्रये धर्म न थाय–एवो अनेकांत छे, अने ते
जाणीने निश्चय तरफ ढळवुं तेनुं नाम सम्यक् एकांत छे. मोक्षमार्गमां वच्चे क्यांय व्यवहारनुं अवलंबन छे ज
नहीं. वच्चे व्यवहार होवा छतां तेना अवलंबने धर्म टकतो नथी, मोक्षमार्ग तो निश्चयना अवलंबने ज टक्यो छे.
भाई, शास्त्रोमां निश्चयना तेम ज व्यवहारना, उपादानना तेम ज निमित्तना, द्रव्यना तेम ज पर्यायना,
अभेदना तेम ज भेदना तथा शुद्धना तेम ज अशुद्धना कथनो भले हो, पण सम्यक् एकांत एवा निज पदनी प्राप्ति
ए ज सर्वनो सार छे. ए बधुं जाणीने जो स्वभाव तरफ न वळे तो जीवने सम्यग्दर्शन प्रगटे नहि ने कल्याण थाय
नहि. जो स्वभावनी रुचि न करे अने भेदनी–व्यवहारनी–निमित्तनी के पर्यायनी रुचि करे तो मिथ्या एकांत थई
जाय छे. शास्त्रना लक्षे अनेक पडखां जाणीने जो स्वभाव तरफनुं वलण न करे तो जीवने शुं लाभ?
हुं ज्ञाताद्रष्टा त्रिकाळ छुं, पूर्णानंद प्रगट करवानी ताकात मारामां भरी छे, ज्ञानदर्शननी वीतरागी
क्रियानो ज हुं कर्ता छुं, जडनी क्रियानो हुं कर्ता नथी तेम ज पुण्य–पाप पण मारी स्वाभाविक क्रिया नथी. कोई
पर मने रखडावतुं नथी अने कोई पर मने समजाववानी ताकातवाळुं नथी. हुं मारी भूले रखडयो छुं, ने मारा
पुरुषार्थे साची समजण करीने मुक्ति पामुं छुं. अनंत सर्वज्ञो–संतो पूर्वे थई गया, पण हुं मारी पात्रताना
अभावे न समज्यो. मारा निजपदनी प्राप्ति स्वसन्मुख पुरुषार्थथी थाय छे. वर्तमानमां हुं मारा पूर्णानंदमय
स्वपदनी प्राप्ति करवा मांगुं छुं तो तेवो पूर्णानंद प्रगट करनारा अनंत जीवो पूर्वे थई गया छे, अत्यारे विचरे छे
अने भविष्यमां पण अनंत थशे. सर्वज्ञता वगर पूर्णानंद न होय. सर्वज्ञता प्रगट करीने पूर्णानंद पामनारा
जीवो सम्यक् एकांत एवा निजपदनो ज आश्रय लईने पाम्या छे–पामे छे ने पामशे; ए सिवाय राग–निमित्त के
व्यवहार–ए बधा परपद छे–तेना आश्रये कोई पाम्या नथी–पामता नथी ने पामशे नहीं.