Atmadharma magazine - Ank 080
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: १५०: आत्मधर्म: ८०
त्रणेकाळे आ एक ज भवना अंतनो ने मुक्तिनी प्राप्तिनो उपाय छे.
श्रीमद्ना वचनोमां ज्यां होय त्यां भवना अंतनो पडकार छे. तेओ लखे छे के––
‘कायानी विसारी माया स्वरूपे शमाया एवा –निर्ग्रंथनो पंथ भव–अंतनो उपाय छे.’
स्वसन्मुख थईने स्वभावनी श्रद्धा–ज्ञान प्रगट करीने तेमां लीनता करवी ते ज भवना अंतनो उपाय छे.
भवना अंतनो पंथ क्यांथी शरू थाय?–शुं भवना कारणनो आश्रय लेवाथी भवना अंतनी शरूआत थाय? –के
भवरहित स्वरूपनो आश्रय लेवाथी भवना अंतनी शरूआत थाय? धर्म माटे आत्माना स्वभाव सिवाय
परनो आश्रय स्वीकारवो ते बंधनो पंथ छे अने शुद्ध स्वभावनो आश्रय स्वीकारवो ते मोक्षनो पंथ छे.
आत्मसिद्धिमां कह्युं छे के–
जे जे कारण बंधना तेह बंधनो पंथ,
ते कारण छेदकदशा मोक्षपंथ भव अंत.
शुभाशुभभावनी रुचि ने पर्यायबुद्धि ते बंधननो एटले के संसारनो पंथ छे. अने तेनो छेद ते भवना
अंतनो एटले के मोक्षनो पंथ छे. पण तेनो छेद कई रीते थाय? ‘आ शुभाशुभनो छेद करुं’–एम तेनी सामे
जोया करवाथी (अर्थात् पर्यायबुद्धिथी) तेनो छेद थाय नहि, पण आत्माना शुद्ध चैतन्यस्वभावनी रुचि करीने
तेमां एकाग्र थतां पर्यायबुद्धिनो अने रागनो छेद थई जाय छे–अर्थात् तेनी उत्पत्ति ज थती नथी. एटले शुद्ध
चैतन्यस्वभावनी रुचि करीने तेमां एकाग्रता करवी ते ज मोक्षनो ने भवना अंतनो पंथ छे.
शास्त्रोमां निश्चय तेम ज व्यवहार बंनेनी वात छे, पण आश्रय तो एक निश्चयनो ज बताव्यो छे. ज्ञान
करवा माटे पर चीज छे खरी, पण कल्याण तो स्वना आश्रये ज थाय छे. अभेदना आश्रये–निश्चयना आश्रये–
द्रव्यसामान्यना आश्रये–अथवा तो शुद्ध उपादानना आश्रये कल्याण छे, ए सिवाय भेदना आश्रये–व्यवहारना
आश्रये–पर्यायना आश्रये के निमित्तना आश्रये कल्याण नथी शास्त्रोमां निश्चय–व्यवहार वगेरे बब्बे पडखांनुं
ज्ञान कराव्युं छे, पण ते बे पडखांने जाणीने एक तरफ वळवा माटे आ उपदेश छे.
बाह्यसंयोग अने निमित्तो हो भले, पण ते आत्माना धर्मनुं साधन नथी. अरे प्रभु! तुं
चैतन्यभगवान एवो नमालो नथी के तने पर संयोगनी अनुकूळताए लाभ थाय. तारा कल्याणने माटे परना
आश्रयनी जरूर पडे एवुं तारुं स्वरूप नथी. निमित्त भले हो पण ते तारा आत्माथी पर छे. अने निमित्तने
लक्षे व्यवहार–शुभराग–थाय ते पण तारा स्वभावथी पर छे ए प्रमाणे जाणीने स्वभाव तरफ वळवुं ते ज
परमात्मपदनो उपाय छे. आ प्रमाणे सम्यक् एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति सिवाय अन्य हेतुए अनेकांत
उपकारी नथी. पर्यायमां अशुद्धता छे खरी, पण तेना आश्रये निजपदनी प्राप्ति थती नथी. स्वभाव तरफ ढळ्‌या
विना, पर्यायना आश्रये कल्याण थाय–एवुं अनेकांत मार्गमां एटले के वस्तुना स्वभावमां छे ज नहीं. तुं तने
समजीने, तारा स्वभावनो महिमा कर अने तारा स्वभाव तरफ वळ–ए ज कल्याणनो मार्ग छे. निजपदनी
एटले के परमात्मदशानी प्राप्ति स्वना आश्रये थाय छे, परना आश्रये निजपदनी प्राप्ति अटके छे. उपादानना
आश्रये निजपदनी प्राप्ति थाय छे, निमित्तना आश्रये निजपदनी प्राप्ति अटके छे.
निजपदनी प्राप्ति जीवथी थई शके छे, तेनो आ उपदेश छे. अनंतकाळथी जीवे पोताना निजपदनी संभाळ
करी नथी, अने निमित्त तथा व्यवहारना आश्रये कल्याण मानीने परपदनी ज प्राप्ति करी छे. स्वपद–चैतन्य–
स्वभावने भूलीने परना आश्रये परपदनी–रागनी–कर्मनी ने शरीरना संयोगनी प्राप्ति थाय छे, ने चार गतिना
अवतार टळता नथी. राजपद हो के देवपद हो ते बधा परपद छे, अने तेना कारणरूप पुण्यभाव पण परपद छे,
चैतन्यभगवान आत्मानुं ते पद नथी. निजपद तो ज्ञाताद्रष्टा स्वभाव छे, तेना आश्रये श्रद्धा–ज्ञान–रमणता
करतां परमात्मपदनी प्राप्ति थाय छे. ए सिवाय परना आश्रये राग ऊठे तेनाथी परपदनी प्राप्ति थाय छे.
अनेकांत पोताना स्वभावपदनी प्राप्ति अर्थे ज उपकारी छे.
श्रीमद् राजचंद्रनुं जीवन एकदम आंतरिक हतुं. तेमने संयमदशा थई न हती पण अंतरस्वभावनी द्रष्टि
प्रगटी हती, स्वभाव प्राप्ति माटेनो प्रयत्न वर्ततो हतो. अंदरथी भगवान आत्मा जाग्यो हतो. छेवटे तेमनो
पोकार छे के–