Atmadharma magazine - Ank 080
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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जेठ: २४७६ : १५१:
‘घणी त्वराथी प्रवास पूरो करवानो हतो’ आ संसारनो अंत लावीने निजपदनी पूर्णतानी शीघ्र प्राप्ति
करवानी हती, पूर्णतानी ज भावना हती. आत्मामां केवळज्ञाननी अनंत पर्यायो सादि–अनंतकाळ प्रगट्या करे
तेवी ताकात भरी छे, एवो परिपूर्ण आत्मा द्रष्टिमां तो आव्यो छे–प्रतीतमां आव्यो छे, स्वभावनी निःशंकता
प्रगटी छे. अने ए स्वभावना आश्रये अल्पकाळे संसारनो अंत करीने मोक्षदशा प्रगट करवानी भावना हती–
‘घणी त्वराथी प्रवास पूरो करवानो हतो, त्यां वच्चे सहरानुं रण संप्राप्त थयुं. माथे घणो बोजो रह्यो हतो ते
आत्मवीर्ये करी जेम अल्पकाळे वेदी लेवाय तेम प्रघटना करतां पगे निकाचित उदयमान थाक ग्रहण कर्यो.’ अहीं
पर्यायनी नबळाईनुं ज्ञान पण वर्ते छे तेनी वात करी, तेमां पण आत्मवीर्यनी वात लीधी छे, पण कर्म नडशे
एवी वात लीधी नथी. अंतरमां सम्यक् एकांत एवा निजपद उपर द्रष्टि पडी छे, अने स्वभाव तरफ पुरुषार्थनो
वेग वळ्‌यो छे, पण स्वभावमां वळतां वळतां वच्चे वीर्य अटकी गयुं, पूर्णताना पुरुषार्थमां न पहोंची शकायुं,
एटले एकाद भव थयो. तेनुं ज्ञान वर्ते छे; छतां स्वभावनी निःशंकता जाहेर करतां कहे छे के–
‘जे स्वरूप छे ते अन्यथा थतुं नथी; ए ज अद्भुत आश्चर्य छे, अव्याबाध स्थिरता छे.’ अवस्थामां
नबळाईथी जराक वीर्य अटक्युं छे तेनुं भान छे, पण द्रष्टिमां जे स्वरूप आव्युं छे ते अन्यथा थवानुं नथी, ए
स्वरूपनी द्रष्टि कदी खसवानी नथी. एटले ए द्रष्टिना जोरे स्वरूपस्थिरता प्रगट करीने अल्पकाळे पूर्णदशा प्रगट
करवाना छीए. ‘स्वात्मवृत्तांत’ मां निःशंकता पूर्वक कहे छे के–
अवश्य कर्मनो भोग जे भोगववो अवशेष रे,
तेथी देह एक ज धारीने जाशुं स्वरूप स्वदेश रे... धन्य रे०
हवे अनंतभव करवाना रह्या नथी, पण एक ज भव बाकी छे. एक भवमां अमने पूर्णस्वरूपनी प्राप्ति
थशे, तेमां त्रणकाळ त्रणलोकमां शंका पडती नथी. ‘अपूर्व अवसर’ नी छेल्ली कडीमां पण आ संबंधमां लखे छे के–
एह परमपद प्राप्तिनुं कर्युं ध्यान में, गजा वगर ने हाल मनोरथरूप जो.
तोपण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो, प्रभु आज्ञाए थाशुं ते ज स्वरूप जो...
अंतरमां एवा परमात्मस्वभावनी श्रद्धा अने ज्ञान प्रगट्यां छे, अने तेनी पूर्ण प्राप्ति माटेनी भावना
वर्ते छे. ‘आवी जेनी दशा होय ते एकावतारी थाय’ एवी भगवाननी आज्ञानुं भान छे, अने साथे पोतानो
निश्चय भेळवीने कहे छे के अल्पकाळे जरूर अमे ते परमपदस्वरूप थईशुं. अंर्तस्वभावनी द्रष्टिपूर्वक आवा
स्वकाळना अपूर्व पुरुषार्थनी भावना करतां करतां जेने देह छूटयो तेने पछी विशेष भव होय नहीं.
निरर्थक अभिप्राय
जीव जे प्रमाणे मानतो होय ते प्रमाणे जो वस्तुस्वरूप न होय तो तेनी मान्यता निरर्थक छे–मिथ्या छे.
शुं परवस्तुना पर्यायनुं परिणमन कोईनी अपेक्षा राखे छे? के पोते पोताना द्रव्यनी अपेक्षाथी ज परिणमे छे?
कोई द्रव्य कोई द्रव्यनी अपेक्षा राखतुं ज नथी. सर्व द्रव्यो पोते पोताथी ज स्वतंत्र परिणमे छे. आम वस्तुस्वरूप
छे, तोपण परद्रव्यना परिणमनमां मारी अपेक्षा छे एम अज्ञानी माने छे. एवी तारी मान्यता हे भाई! तने
ज दुःखनुं कारण छे. तारो जे अभिप्राय छे ते प्रमाणे वस्तुमां बनतुं तो नथी, माटे तारो अभिप्राय व्यर्थ छे–
निरर्थक छे, अने तने ज बंधननुं कारण छे.
समयसार–बंधअधिकार गा. २६६ उपरना प्रवचनमांथी.