Atmadharma magazine - Ank 080
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: १५२: आत्मधर्म: ८०
श्री परमात्म – प्रकाश – प्रवचनो
लेखांक १६ मो] [अंक ७९ थी चालु
[वीर सं. २४७३ भादरवा सुद १२ (२) दसलक्षणी पर्वनो उत्तमत्याग दिन (८)]
[] स् द्धस्रू ध् र्व् . : जंत्र, मंत्र, धारणा वगेरे दुर्लभ नथी, ए तो
बधा शुभराग छे; पण शुद्धस्वरूपनी ओळखाण करीने तेना ध्यानद्वारा ईन्द्रियोना रसनी वृत्ति तथा मोह अने
अब्रह्मचर्यादिने तोडवा ते दुर्लभ छे. आत्मानो स्वभाव परमानंदमय समरसी भावरूप छे; स्वर्गनां कल्पित
सुख अने नरकनां दुःख ए बंने आत्माना वीतरागी आनंदनी अपेक्षाए समान छे, अर्थात् ते बंने आत्माना
वीतरागी आनंदनी विरुद्धरूप छे. मनना संकल्प–विकल्प थाय ते सहजानंदस्वरूपी आत्माना ध्यानना वेरी छे,
तेने जीतवा दुर्लभ छे, एटले के तेमां अनंत पुरुषार्थ छे. माटे मंत्र–तंत्रादिनुं के प्रतिमा वगेरेनुं ध्यान छोडीने
शुद्धात्मस्वरूपनुं ध्यान करो.–सर्वे गृहस्थोने आवो उपदेश छे. गृहस्थदशामां पण शुद्धात्मानुं ध्यान थई शके छे.
शुद्धात्मानी साची समजण अने बहुमान करवुं ते पण एक प्रकारे शुद्धात्मानुं ध्यान छे.
[] िन्द्र ि जी? : रसने जीतवानुं कह्युं एटले शुं? चैतन्यस्वभावने चूकीने
रसमां जे गृद्धिभाव थतो होय ते छोडवानी वात छे. धर्मात्माने बहारमां अनेक तरेहनां रसनां भोजननो
संयोग होय पण अंतरमां ते रस प्रत्ये रुचि नथी, चैतन्यने चूकीने ते रसमां लीन थता नथी, माटे संतो तेमने
जितेन्द्रिय कहे छे. अने अज्ञानीने बहारमां संयोगरूप एक ज सादी चीज होय छतां अंतरमां चैतन्य चूकीने
तेमां लीन थई जतो होय, तेने संतो जितेन्द्रिय कहेता नथी. माटे रसने जीतवानुं कह्युं तेमां बहारना संयोगनी
वात नथी पण चैतन्यनी रुचिपूर्वक रसनी गृद्धि टाळवी तेनुं नाम रसने जीत्यो कहेवाय. तेवी रीते
आत्मस्वभावनी सावधानीपूर्वक मिथ्यात्वादि मोहभाव टाळवो ते दुर्लभ छे अने स्वरूपनी रुचिपूर्वक
ब्रह्मचर्यनो रंग टकावी राखवो ते पंचमहाव्रतमां दुर्लभ छे. अने संकल्प–विकल्प तोडीने चैतन्यस्वरूपमां
एकाग्रता करवी ते दुर्लभ छे. परंतु चैतन्यस्वरूपना ध्यानवडे ते सर्वे थई शके छे. शुद्धात्मस्वरूपना ध्याननो
अभ्यास करनार जीवने ईन्द्रियना विषयोनी रुचि टळी ज जाय छे. चैतन्यना परमानंदमय वीतरागी
स्वभावनी रुचि थाय अने ईन्द्रियना विषयोमांथी सुखबुद्धि न टळे–एम बने ज नहीं. ए रीते स्वरूपनी
एकाग्रतारूप ध्यानवडे ते चार प्रकारने जीतवा, तेमां स्वभावनो अनंत पुरुषार्थ छे. ।। २२।।
[] द्धत्स् ? : हवे कहे छे के आ परमात्मतत्त्व दिव्यध्वनि, शास्त्र वगेरे
परद्रव्योथी अने विकल्पथी अगोचर छे, मात्र निर्विकल्प आत्मध्यानथी ज अनुभवगम्य छे.
(गाथा २३)
वेयहिं सत्थहिं इंदियहिं जो जिय मुणहु ण जाइ।
णिम्मल झाणहं जो विसउ सो परमप्पु अणाइ।।
२३।।
भावार्थ:– केवळी भगवाननी वाणी के मुनि वगेरे ज्ञानीओनां वचनो तथा ईन्द्रियो के मनथी शुद्धात्मा
जाणी शकातो नथी, पण निर्मळ ध्यानथी ज जाणी शकाय छे; एवो अनादि परमात्मस्वभाव छे.
भगवानना दिव्यध्वनिना श्रवणथी आत्मस्वरूप समजाय नहि. भगवाननी वाणी तरफना लक्षे ज्ञान
थतुं नथी एम जो न समजे तो सम्यग्ज्ञान थाय नहि. जेने सम्यग्ज्ञाननी लायकात होय तेने पहेलांं ज्ञानीनी
वाणीनुं श्रवण होय छे खरु, पण सम्यग्ज्ञान तो चैतन्यस्वभावना आश्रये ज प्रगटे छे.
वाणीना लक्षे तथा शास्त्रोना लक्षे जे ज्ञान थाय छे ते विकल्पात्मक छे, रागवाळुं छे, तेनाथी आत्मा
अनुभवातो नथी. अने ईन्द्रियो तथा मनना लक्षे पण विकल्प ज थाय छे, तेनाथी अमूर्तिक चैतन्यस्वरूपी
आत्मा अनुभवातो नथी. पण ते बधानुं अवलंबन छोडीने एकला चैतन्यस्वरूपमां एकाग्रतारूप निर्मळ
ध्यानथी ज शुद्ध परमात्मा अनुभवाय छे–जणाय छे. मिथ्यात्वादिथी रहित निर्मळ स्वशुद्धात्मानी अनुभूतिवडे
अनुभवाय एवो आत्मस्वभाव छे. हे जीव! तुं एवा आत्माने