Atmadharma magazine - Ank 080
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 15 of 21

background image
: १५४: आत्मधर्म: ८०
तेथी अल्पकाळे शुद्धात्मस्वरूप पामीने ते जीव पोतानुं कल्याण करशे. आ रीते शुद्धात्मानो उपदेश ज कल्याणनुं कारण छे.
[] द्धत् स्रू र् . : हवे, आत्मानो सर्वोत्कृष्ट परम शुद्धस्वभाव शास्त्रगम्य के
ईन्द्रियगम्य नथी, तेम ज विकल्पगम्य नथी, पण परम समाधिरूप निर्विकल्प ध्यानगम्य ज छे,–तेनुं स्वरूप
फरीथी वर्णवे छे–
(गाथा २४)
केवल दंसणणाणमउ केवल सुक्ख सहाउ।
केवल वीरिउ सो मुणहि जो जि परावउ भाउ।।
२४।।
भावार्थ:– जे केवळ दर्शनज्ञानमय छे, जेने परनी सहाय नथी, पोते ज सर्व प्रकारे परिपूर्ण ज्ञानदर्शनमय
छे, तथा केवळ सुखस्वभाव छे अने अनंत वीर्यवाळो छे, ते ज उत्कृष्ट अर्हंतपरमात्माथी पण श्रेष्ठ
स्वभाववाळो शुद्ध सिद्धात्मा छे.
[] न्स् िर् , र्ं त्त : आ चैतन्यभगवान आत्मा बधा
प्रकारे पोताथी पूरो छे–सर्वगुणसंपन्न छे; तेना ज्ञान–दर्शन असहाय छे, तीर्थंकर भगवाननी सहाय पण
आत्माने नथी. पोतानो स्वभाव ज केवळ आनंदस्वरूप छे, तेना आनंद माटे कोई परद्रव्योनी अपेक्षा नथी.
अत्यारे आत्मा आवो परिपूर्ण छे, शास्त्रनुं के गुरुनुं अवलंबन तेने नथी. संयोगरूपे ते होय भले, पण अहीं
आचार्यदेव कहे छे के जेना प्रत्येथी तारे उपयोग छोडवानो छे तेनुं तारे शुं प्रयोजन छे? माटे बधानुं लक्ष छोड,
अने तारो चैतन्यस्वभाव सदाय पूरो छे तेने लक्ष्य बनावीने तेनुं ज निर्विकल्प ध्यान कर. आ आत्मस्वभाव
उत्कृष्ट एवा अरिहंतथी पण श्रेष्ठ, सिद्धरूप शुद्धात्मा छे. अहीं अधूरी अवस्था होवा छतां आत्माने अरिहंतथी
पण श्रेष्ठ केम कह्यो?–कारण के अहीं त्रिकाळ शुद्धस्वभावनी द्रष्टिथी कथन छे, पर्याय गौण छे अने आ आत्माने
अरिहंतना लक्षे रागनी उत्पत्ति थाय छे, अने पोताना स्वभावना लक्षे वीतरागतानी उत्पत्ति थाय छे, तेथी
आ आत्माने माटे अरिहंत श्रेष्ठ नथी पण पोतानो शुद्धस्वभाव ज श्रेष्ठ छे. अरिहंत अवस्था प्रगट थवानुं
सामर्थ्य तेनामां भर्युं छे, अने ते ज ध्यान करवा योग्य छे, अन्य पदार्थो ध्यान करवा योग्य नथी.
[] द्धत्स् िद्ध त्त . : सिद्ध भगवानथी पण आ आत्मस्वभाव
उत्तम छे. सिद्धप्रभुना लक्षे राग थाय छे, माटे आ आत्मानी अपेक्षाए सिद्ध भगवान उत्तम नथी. वळी ते
सिद्धदशा प्रगटी क्यांथी? त्रिकाळी शुद्धात्मस्वभावमांथी ज ते दशा प्रगटी छे, सिद्धदशानो आधार तो ते ज छे,
माटे शुद्धात्मस्वभाव ज श्रेष्ठ छे. हे जीव! तेने जाणीने तेनुं ज ध्यान कर. ए ज मुक्तिनो मार्ग छे, ए सिवाय
कोई उपायथी आत्मशांति नथी.
।। २४।।
वीर सं. २४७३ भादरवा सुद १४ दसलक्षणी पर्वनो उतमब्रह्मचर्य दिन (१०)
[] द्धत् ्य ? : हवे त्रणलोकथी वंद्य एवा शुद्धात्माने रहेवानुं स्थान बतावे छे–
(गाथा २प)
एयहिं जुत्तउ लक्खणहिं जो परु णिक्कलु देउ।
सो तहिं णिवसइ परमपइ जो तइलोयहं झेउ।।
२५।।
भावार्थ:– आ परमात्मप्रकाशनी १६ थी २४ गाथा सुधीमां शुद्धात्मस्वभावनुं वर्णन करीने हवे श्री
आचार्यदेव कहे छे के–पूर्वे कह्या तेवा लक्षणोसहित सर्वथी उत्कृष्ट, शरीरादि रहित, त्रणलोकने आराध्यदेव एवा
सिद्ध परमात्मा परमपदमां बिराजे छे, ते ज त्रणलोकने ध्येयरूप छे.
अहीं जे शुद्धात्मानुं वर्णन कर्युं छे एवो पोतानो आत्मा छे, ते ज उपादेय छे, अन्य कोई उपादेय नथी.
सिद्ध भगवान लोकाग्रे बिराजमान छे तेम आ आत्मानो स्वभाव पण लोकाग्रे बिराजमान छे–एटले के पुण्य–
पाप वगेरे सर्वे विकारभावस्वरूप जे लोक छे तेना उपर ज आत्मस्वभाव रहे छे, पण कदी पोते विकारथी
दबाई जतो नथी अर्थात् आत्मस्वभाव पोते विकारी थई जतो नथी. जे सदाय विकारथी जुदो ने जुदो पोताना
परम स्वभावमां वसे छे एवो आ आत्मस्वभाव ज सर्व जीवोने ध्येयरूप छे. एवो सिद्धसमान शुद्धात्मा अहीं
ज शरीरमां बिराजमान छे. अहीं देहने सिद्धालयनी उपमा छे, केम के सिद्ध जेवो पोतानो आत्मा ते देहमां