Atmadharma magazine - Ank 080
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 18 of 21

background image
जेठ: २४७६ : १५७:
ज्ञान पर तरफना विकल्प द्वारा पण जे आत्माने पहोंचातुं नथी ते आत्माने वाणीथी तो केम कही शकाय? मति
एटले पर तरफना ज्ञाननो उघाड, अथवा पर तरफना वलणवाळुं ज्ञान–एम अहीं अर्थ समजवो. सम्यक्
मतिज्ञान वडे तो आत्मा जणाय छे, पण पर तरफ वलणवाळा ज्ञानना उघाड वडे आत्मा जणातो नथी.
आम पहेलांं तो उपादानस्वभाव तरफनी वात करी, हवे अनंतकाळथी रही गयेली ते भ्रांति टाळवा माटे
अने अंर्तस्वभावमां वळवा माटे शुं करवुं ते कहे छे.
‘निरंतर उदासीनतानो क्रम सेववो’ ‘निरंतर’ कह्युं छे. जेम बदाममांथी तेल काढवुं होय तो तेने
सळंगपणे घसवी जोईए; थोडाक लीसोटा मारीने पाछो वच्चे थोडीवार बीजा काममां रोकाय, ने वळी पाछो
लीसोटा मारे,–एम कटके कटके घसे तो तेल न नीकळे. पण वच्चे अंतर पड्या वगर घसे तो तेल नीकळे. तेम
अहीं निरंतर उदासीनतानो क्रम सेववानुं कह्युं छे. पर प्रत्येनी रुचि कंईक घटे तो अंतरना विचार तरफ वळे ने?
आ वात नास्तिथी करी छे. पर प्रत्ये वैराग्य दशा लावीने अंतरनी विचारणामां निरंतर रोकावुं जोईए. अहीं
निरंतर पर प्रत्ये उदासीनता सेववानुं कह्युं; तो शुं खावुं–पीवुं कंई न करवुं? तेम कोई पूछे तो कहे छे, के–जेम
वेपारनो लोलुपी सूतो होय के खातो होय, पण साथे तेने वेपारनी लोलुपतानो भाव तो पड्यो ज छे. तेम
धर्मनी रुचिवाळाने ऊंघमां पण पर प्रत्येनी उदासीनता खसे नहीं; धर्मनी रुचिवाळो उदासीनताना क्रममां
आंतरो पडवा देतो नथी. खावुं–पीवुं के वेपार वगेरेनो राग वर्ततो होवा छतां अंतरनी रुचिमां ते प्रत्येनी
उदासीनता एक क्षण पण खसती नथी.
वळी भ्रांति टाळवानुं निमित्त ओळखावे छे, के ‘सत्पुरुषनी भक्ति प्रत्ये लीन थवुं. ’ पहेलांं सत्पुरुष
कोण ते ओळखवा जोईए, ओळखवानी जवाबदारी पोतानी छे. सत्पुरुष कोने कहेवाय ते जाणवानो पोतानो
भाव छे. बे पैसानी तावडी लेवा जाय त्यां पण टकोरा मारीने परीक्षा करे छे. तो अनंतकाळनी भ्रांति टाळीने
आत्मानुं कल्याण प्रगट करवा माटे सत्पुरुषनी परीक्षा करीने ओळखवा जोईए. सत् एटले आत्मस्वभाव,
तेनी जेने ओळखाण थई छे ते सत्पुरुष छे. संसार प्रत्ये निरंतर उदास थवुं अने सत्पुरुषनी भक्ति प्रत्ये लीन
थवुं–एम बे वात करी.
वळी विशेष कहे छे: ‘सत्पुरुषोनां चरित्रोनुं स्मरण करवुं.’ पहेलांं जेनुं ज्ञान कर्युं होय तेनुं स्मरण करी
शके. सत्पुरुषनुं चरित्र कोने कहेवाय तेना ज्ञान विना तेनुं स्मरण कई रीते करी शके? सत्पुरुषनुं चरित्र क्यां
रहेतुं हशे? कोई बहारनी क्रियामां के शुभाशुभ रागमां सत्पुरुषोनुं चरित्र नथी. बहारमां फेरफार न देखाय पण
धर्मीने अंतरनी दशामां रुचिनुं वलण स्वभाव तरफ वळी गयुं छे. जेम नाना हीरानी किंमत लाखोनी होय, ते
झवेरी ज जाणे, तेम आत्मानुं चरित्र अंर्तद्रष्टिथी ज ओळखाय. धर्मी आत्मानुं चरित्र शुं? ते शरीरनी दशामां
के वस्त्रमां नथी, आहार–शुद्धिमां के वस्त्रना त्यागमां पण चरित्र नथी;–ए तो बधुं अज्ञानीने पण होय छे.
सत्पुरुषने अंतरमां शुं फेर पड्यो छे ते जाण्या विना तेमना चरित्रनुं ज्ञान थाय नहीं. सत्पुरुषनुं अंतरनुं चरित्र
शुं? ‘अमुक गाममां रहेता हता ने झवेरातनो वेपार करता हता, जिज्ञासुओने पत्र लखता हता के उपदेश देता
हता’ –एमां शुं सत्पुरुषनुं चरित्र छे? ए तो बधी बाह्य वस्तु छे, तेमां सत्पुरुषनुं चरित्र नथी पण अंतरना
स्वभावने जाणीने त्यां ठर्या छे अने रागादि भावोनी रुचि टळी गई छे, ते ज सत्पुरुषोनुं चरित्र छे; तेने
ओळखे तो तेनुं खरुं स्मरण थाय.
वळी कहे छे के ‘सत्पुरुषोनां लक्षणोनुं चिंतन करवुं’ ‘आवी भाषा हती अने आवुं शरीर हतुं’ –एम
शरीरना लक्षणथी सत्पुरुष ओळखाय नहि. अंतरस्वभावनी श्रद्धा, ज्ञान ने रमणता ते सत्पुरुषनुं लक्षण छे.
बहारमां त्याग थयो के शुभराग थयो ते सत्पुरुषनुं खरुं लक्षण नथी. शरीर देखाय छे ते देव–गुरु नथी, ते तो
जड छे; देव के गुरु तो आत्मा छे, अने अंतरमां श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र स्वरूप छे, ते ज तेनुं लक्षण छे, ते लक्षण
वडे सत्पुरुषने ओळखे तो पोतानो आत्मा तेवो थाय.
लक्षण तेने कहेवाय के जे वडे लक्ष्यने ओळखाय. सत्पुरुषमां एवुं शुं लक्षण छे के जे बीजामां न होय ने
तेनामां ज होय ने तेनामां ज होय? सत्पुरुषनी अंतरनी श्रद्धा–ज्ञान ते तेनुं लक्षण छे; रागादि थाय ते तेनुं
लक्षण नथी.