जेठ: २४७६ : १४३:
‘श्रीमद् राजचंद्र जन्मस्थानभुवन’ मां
पू. गुरुदेवश्रीनुं खास प्रवचन
“अनेकांतिक मार्ग पण सम्यक् एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति
कराववा सिवाय बीजा अन्य हेतुए उपकारी नथी.”
–श्रीमद्ना आ एक वाक्यमां रहेला जैनदर्शनना ऊंडा रहस्यने पू. गुरुदेवश्रीए आ प्रवचनमां प्रगट
कर्युं छे. पू. गुरुदेवश्री ववाणीया पधार्या त्यारे, ‘श्रीमद् राजचंद्र जन्मस्थानभुवन’ मां वीर सं. २४७६ ना माह
वद ३ नुं आ प्रवचन छे.
श्रीमद् राजचंद्रनुं आंतरिक जीवन हतुं; तेने समजवा माटे अंतरनी पात्रता जोईए. बाह्य संयोगमां
ऊभा होवा छतां धर्मात्मानी अंतरस्वभावनी द्रष्टि कंईक जुदुं काम करती होय छे. संयोगद्रष्टिथी जुए तो तेने
स्वभाव न समजाय. बाह्य संयोग तो पूर्वना प्रारब्ध निमित्ते होय पण धर्मीनी द्रष्टि ते संयोग उपर होती
नथी, अंतरमां आत्मानो स्व–पर प्रकाशक स्वभाव शुं छे, तेना उपर धर्मीनी द्रष्टि छे. एवी द्रष्टिवाळा
धर्मात्मानुं आंतरिक जीवन आंतरिक द्रष्टिथी समजाय तेम छे. बाह्य संयोग उपरथी तेनुं माप थतुं नथी.
अंतरना चैतन्यपदनो महिमा वाणीथी अगोचर छे, ते बतावतां अपूर्व अवसरमां कहे छे के–
जे पद श्री सर्वज्ञे दीठुं ज्ञानमां, कही शक्या नहि ते पण श्री भगवान जो...
तेह स्वरूपने अन्य वाणी तो शुं कहे? अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो...
चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा स्वसंवेदनथी जणाय तेवो छे; पोते स्वसंवेदनथी जाणे तो देव–गुरु–
शास्त्रने निमित्त कहेवाय छे. जो पोते अंतरमां आत्माने जाणवानो प्रयत्न न करे तो देव–गुरु–शास्त्रनी
वाणीना आशयने पण यथार्थपणे जाणी शके नहि अने तेने देव–गुरु–शास्त्र निमित्त कहेवाय नहीं.
तळावनी उपली सपाटी बहारथी सरखी लागे, पण अंदर उतरीने तेना ऊंडाणनुं माप करतां ऊंडाईमां
केटलुं अंतर छे ते जणाय छे. तेम ज्ञानी अने अज्ञानीनां वचनो उपरटपके जोतां सरखां होय तेवां लागे, पण
अंतरनुं ऊंडुं रहस्य जोतां तेमना आशयमां केवो आंतरो छे ते समजाय.
ज्ञानी अने अज्ञानीनी वेपार–खावुंपीवुं वगेरे बहारनी क्रियाओ सरखी देखाय अने बाह्यमां वस्त्रादि
संयोगनो अभाव पण कदाच सरखो होय, परंतु तेमनी अंतरनी दशामां आकाश–पाताळ जेटलुं अंतर छे, तेनुं
माप बहारथी थई शके नहीं. ज्ञानीने पूर्व प्रारब्धथी लाखोना वेपारनो संयोग वर्ततो होय अने अज्ञानीने
कदाच पूर्व प्रारब्धथी बाह्य संयोगो ओछा होय, पण अंतरमां ‘शरीरादि जडनी क्रिया हुं करुं’ एवुं परमां
अहंपणुं अज्ञानीने होय छे, आत्मानो अनादि–अनंत ज्ञानस्वभाव निजपद स्वरूप छे, तेनुं तेने भान होतुं
नथी ने पुण्य–पापमां तथा परमां अहंपद वर्ततुं होय छे, तेथी ते अज्ञानीने क्षणे क्षणे अधर्म थाय छे अने
ज्ञानीने बाह्य संयोग घणा होवा छतां, तेना अंतरमां एक रजकणनुं पण स्वामीपणुं नथी, अंतरंग
चैतन्यस्वभावना निजपद उपर तेमनी द्रष्टि पडी छे एटले तेमनी परिणति क्षणे क्षणे निजपद तरफ वळती जाय
छे. धर्मी–अधर्मीनां माप बहारथी आवे तेम नथी.
श्रीमदे पोताना लखाणोमां ज्यां त्यां वारंवार निजस्वरूपनी प्राप्तिनो पोकार कर्यो छे. ‘मूळमार्ग’मां पण
कह्युं छे के:–
ते त्रणे अभेद परिणामथी रे, ज्यारे वर्ते ते आत्मारूप
...मूळ०
तेह मारग जिननो पामियो रे, किंवा पाम्यो ते निजस्वरूप
...मूळ०