Atmadharma magazine - Ank 080
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: १४४: आत्मधर्म: ८०
सवर्ज्ञनो मार्ग अने निजपदनो मार्ग जुदा नथी. ज्यारे सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ए त्रण अभेदपणे
आत्मारूप वर्ते छे त्यारे ते जीव, सर्वज्ञनो मार्ग पाम्यो एम कहो, के निजस्वरूपने पाम्यो एम कहो, –बंने जुदा नथी.
जे निजपद एटले के आत्मस्वरूप सर्वज्ञ भगवाने पोताना ज्ञानमां प्रत्यक्ष जाण्युं, पण वाणीद्वारा पूरुं
न कहेवायुं, भगवानना ज्ञानमां आव्युं पण वाणीमां पूरुं न आव्युं, तो ते पदना महिमाने अन्य वाणी तो शुं
कहे? ‘अनुभवगोचर मात्र रह्युं ते ज्ञान जो’ वाणीथी अगोचर अने पोताना ज्ञानना स्वानुभवथी गोचर छे.
आत्मानुं निजपद तो पोताना स्वसंवेदनज्ञानथी ज वेदवा योग्य छे–जणावा योग्य छे–प्राप्त करवा योग्य छे–
प्रगट करवा योग्य छे–अनुभव करवा योग्य छे.–ए प्रमाणे निजपदनो महिमा करीने त्यार पछी छेल्ली कडीमां ते
पदनी प्राप्ति माटे भावना करतां कहे छे के–
एह परमपद प्राप्तिनुं कर्युं ध्यान में,
गजा वगर ने हाल मनोरथरूप जो.
तोपण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो,
प्रभु आज्ञाए थाशुं ते ज स्वरूप जो... अपूर्व०
आवा चैतन्यस्वरूपी निजपदनुं पोताने भान तो थयुं छे, पण हजी पूर्ण प्राप्ति थई नथी, तेथी पूर्णतानी
प्राप्तिनी भावना करी छे. अने तेनी प्राप्ति जरूर थशे–एम पोतानी निःशंकता छे.
भरूचना एक भाई अंतरद्रष्टि वगर बाह्यक्रियामां विधि–निषेधना आग्रही हता, तेमना उपरना एक
पत्रमां श्रीमद् लखे छे के–‘अनेकांतिक मार्ग पण सम्यक्एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति कराववा सिवाय बीजा
अन्य हेतुए उपकारी नथी.’–आ एक लीटीमां श्रीमदे सर्वज्ञना हृदयनो मर्म गोठव्यो छे, बधा शास्त्रोनो
छेवटनो सार आमां बतावी दीधो छे. पात्र जीव होय ते तेनुं रहस्य समजी जाय. श्रीमद्ना वचनो पाछळ एवो
गूढ भाव रहेलो छे के गुरुगम वगर पोतानी मेळे एनो पत्तो खाय तेम नथी. घणा जीवो शास्त्रमां कहेला
व्यवहार व्रत, तप, उपवासादि क्रियामां तेम ज आ खपे ने आ न खपे–एम बाह्य विधि–निषेधना आग्रहमां
वळगी रहे छे ने तेमां ज सर्वस्व मानी बेसे छे. परंतु ते व्रतादिमां पर तरफ जती लागणीनो भाव तेम ज देव–
गुरु–शास्त्रनी श्रद्धानो भाव ते बधो शुभराग छे–विकार छे, तेमां ज जे धर्म मानीने अटकी पड्या छे तेने
श्रीमद् आ एक लीटी द्वारा कोरडो मारीने अंतरमां वाळवा मांगे छे. आ एक लीटीमां केटलुं रहस्य रहेलुं छे तेनुं
माप बहारथी न आवे.
एक बाई चोखानी कमोद खांडती हती, तेमां चोखा तो कसदार होवाथी नीचे उतरता हता, अने
फोतरां उपर देखाता हता. त्यां बीजी बाईए ते जोयुं. तेणे अंदरना चोखा तो न देख्या ने बहारना एकला
फोतरां जोया. एटले पेली बाई फोतरां खांडती लागे छे एम मानीने पोते पण घरे जईने फोतरां खांडवा
लागी. पण फोतरामांथी चोखा क्यांथी नीकळे? ते बाईए मात्र बाह्य अनुकरण कर्युं. तेम अज्ञानी जीवो पण
ज्ञानीओनी ऊंडी अंतरद्रष्टिने ओळखता नथी अने मात्र तेमना शुभरागनुं अने बहारनी क्रियानुं अनुकरण
करे छे. ज्ञानीओने अंतरमां पुण्य–पापनी लागणीओ उपर द्रष्टि होती नथी, अने जड शरीरनी क्रिया मारे
लीधे थाय छे–एम तेओ मानता नथी, तेमनी द्रष्टिनुं जोर अंतरमां निजपद उपर होय छे के हुं अनादिअनंत
ध्रुवस्वभावी ज्ञायकमूर्ति आत्मा छुं.–आवी अंतरंगद्रष्टिने तो अज्ञानी जाणतो नथी, अने अवस्थामां वर्तती
पुण्य–पापनी लागणीओने तथा देहादिनी क्रियाने जुए छे अने तेनाथी ज धर्म थतो हशे एम ते माने छे;
एटले फोतरां खांडनार बाईनी माफक, ते पण फोतरां जेवा शुभरागमां ने देहादिनी क्रियामां अटकी रहे छे.
ज्ञानीओ तो पोताना अंतरमां स्वभाव तरफनुं वलण करी रह्या छे, स्वभावनी श्रद्धा, ज्ञान ने एकाग्रतारूपी
कस तो अंदरमां उतरे छे (–अर्थात् आत्मामां अभेद थाय छे), तेनुं फळ बहारमां देखातुं नथी; अस्थिरताना
कंईक रागने लीधे पूजा–भक्ति–व्रत वगेरे शुभराग तेम ज वेपार–धंधा वगेरे संबंधी अशुभराग थाय तेने
ज्ञानी फोतरां समान जाणे छे तथा देह–मन–वाणीनी क्रिया तो जडनी छे, ते बंनेथी भिन्न पोताना
निजस्वभाव उपर ज्ञानीनी द्रष्टि छे. आवी द्रष्टिने लीधे धर्मीने क्षणे क्षणे अंतरमां निजपद तरफनुं वलण छे.
वच्चे पुण्य–पापनी लागणी ऊठतां निमित्तो उपर लक्ष जाय छे अने देहादिनी क्रिया तेना कारणे स्वयं थती
होय छे, तेने ज अज्ञानी जुए छे. परंतु ज्ञानीने