Atmadharma magazine - Ank 080
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: १४६: आत्मधर्म: ८०
अने निमित्त पण छे–एम बंनेने जाणे खरो, पण तेमां उपादानथी वस्तुनुं काम थाय छे अने निमित्त कांई करतुं
नथी–एम समजीने जो उपादान तरफ वळे तो अनेकांत कहेवाय. अनादिनो अज्ञानी जीव साचुं आत्मभान
पोतानी लायकातथी ज्यारे प्रगट करे त्यारे तेने आत्मज्ञानी सद्गुरु ज निमित्तरूपे अवश्य होय. साचुं निमित्त
न होय तेम बने नहीं, तेम ज निमित्त कांई करी दे–एम पण बने नहीं. श्रीमद् कहे छे के–
बुझी चहत जो प्यास को, है बूझनकी रीत, पावे नहि गुरुगम विना, ए ही अनादि स्थित.
पायाकी ये बात है, निज छंदन को छोड, पीछे लाग सत्पुरुषको तो सब बंधन तोड.
हे भाई! जो तुं आत्मस्वभावनुं भान करवा चाहतो हो अने अनादिनुं अज्ञान टाळवुं होय तो तेनी
रीत छे. पण गुरुगम विना ते रीत हाथ आवे तेम नथी–एवी अनादि वस्तुस्थिति छे. चैतन्यस्वभाव कोण छे
ते गुरुगम वगर समजाय नहीं. जीव ज्यारे सम्यग्ज्ञान पामे छे त्यारे. ते पोतानी लायकातथी ज पामे छे,
पण ते लायकात वखते निमित्तपणे गुरुगम न होय एम बने नहीं.––आवो अनेकांत छे; निमित्त कांई करे
नहीं अने अज्ञानी निमित्त होय नहीं. जेम चार मण चोखा लेवा जाय त्यां अढी शेरनो कोथळो भेगो होय,
पण चार मण चोखा भेगो अढी शेरनो कोथळो रंधाय नहीं, तेम ज बारदान तरीके कोथळो न होय एम पण
बने नहीं. तेम चैतन्यस्वभावने जाणवामां ज्ञानी निमित्त तरीके होय छे, ते बारदान छे–बहारनी चीज छे. ते
निमित्त कांई समजावी देतुं नथी. ज्ञानी सिवाय अज्ञानी निमित्त होय नहीं, ने आत्माना आनंदना
अनुभवमां निमित्त कांई करे नहीं. जेम ऊंचुं केसर लेवा जाय त्यां बारदान तरीके शणीयानो कोथळो न होय
पण सारी बरणी के पेटी होय. तेम अपूर्व सत्यस्वभावनी समजण प्रगट करवामां निमित्तरूपे साचा देव–
गुरु–शास्त्र होय, अज्ञानी न होय.
––आ रीते, उपादान छे ने निमित्त पण छे–एम बंनेने जाणवा ते अनेकांत छे; पण ते अनेकांतिकमार्ग
पण सम्यक् एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति कराववा सिवाय बीजा कोई हेतुए उपकारी नथी. एटले के उपादान
अने निमित्त बंनेने जाणीने एक उपादानस्वभावसन्मुख वळवुं ते प्रयोजन छे. उपादान छे अने निमित्त छे–
एम जाणीने जो तेना ज लक्षे रोकाय, ने निमित्तनुं लक्ष छोडीने पोताना उपादाननी द्रष्टि प्रगट न करे तो
निजपदनी प्राप्ति थाय नहीं. पोताना स्वभाव तरफनी एकता प्रगट कर्या विना अनेकांतनुं पण साचुं ज्ञान
थाय नहीं.
(१) त्रिकाळी द्रव्य शुद्ध अने क्षणिक अवस्थामां अशुद्धता–ए बंने पडखांने जाणीने, शुद्धस्वभाव तरफ
वळवुं ते अनेकांत छे. शुद्धस्वभाव तरफ वळ्‌या विना अशुद्धतानुं पण यथार्थ ज्ञान थाय नहीं.
(२) पोते पोतानी पात्रता प्रगट करीने अंतरमां वलण करे तो सत् समजाय. अने ते वखते सद्गुरु
निमित्त होय, पण निमित्त कांई करे नहीं.–ए प्रमाणे उपादान–निमित्तने जाणीने, निमित्तनुं लक्ष छोडीने उपादान
तरफ वळवुं ते प्रयोजन छे. उपादान तरफ वळ्‌या विना निमित्तनुं यथार्थ ज्ञान प्रगटे नहीं.
ए प्रमाणे बे बोल थया. हवे त्रीजो बोल निश्चय अने व्यवहार संबंधमां कहेवाय छे–
(३) अखंड चैतन्यस्वभाव तरफ वळतां पहेलांं, ‘साचा देव–गुरु–शास्त्र शुं कहे छे’ एवो परसन्मुख
शुभराग होय छे, पण ते शुभरागनी वृत्ति तरफथी लक्ष छूटीने अखंड ज्ञायकस्वभाव तरफ वळ्‌या विना निश्चय–
व्यवहार बंनेनुं यथार्थ ज्ञान थतुं नथी. स्वभाव तरफ ढळतां रागनो आश्रय तूटे त्यारे अनेकांत थाय छे. अखंड
ज्ञानस्वभाव ते निश्चय, अने शुभराग ते व्यवहार. निश्चयज्ञानस्वभाव तरफ वळतां स्व–परप्रकाशक ज्ञान
सामर्थ्य खील्युं, ते ज्ञान शुभरागने व्यवहार तरीके जाणी ले छे.
(१) समजवा टाणे पर्यायमां अशुद्धता होय छतां स्वभाव शुद्ध छे, ते शुद्धस्वभावनो आश्रय करे तो
समजाय.
(२) उपादाननी समजवानी तैयारी वखते निमित्त होय छे, पण समजनार पोते छे.–एम जाणीने,
निमित्तनुं लक्ष छोडीने उपादान तरफ वळे तो यथार्थ समजाय.
(३) सत् समजवानी पात्रता वखते शुभरागरूप व्यवहार होय, पण ते व्यवहारना आश्रये कल्याण
नथी. ते व्यवहारनो आश्रय छोडीने, परमार्थस्वभावनो आश्रय करे तो सत् समजाय.