Atmadharma magazine - Ank 080
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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जेठ: २४७६ : १४७:
––ए प्रमाणे बब्बे पडखां जाणीने एक स्वभाव तरफ वळे त्यारे अनेकांत थाय छे; बंनेने पकडी राखे तो
अनेकांत थतुं नथी. अज्ञानीओ अनेकांतना नामे झघडा करे छे. पण अहीं ‘सम्यक् एकांत एवा निजपदनी प्राप्ति
सिवाय अन्य कोई हेतुए अनेकांतमार्ग उपकारी नथी’ –एम कहीने ते बधा झघडानो निकाल करी नांख्यो छे.
(१) जीव समजे त्यारे अशुद्धता होवा छतां तेना आश्रये कल्याण थतुं नथी, पण शुद्धस्वभावना
आश्रये ज कल्याण थाय छे.
(२) जीव समजे त्यारे निमित्त होवा छतां तेना आश्रये कल्याण थतुं नथी पण उपादानस्वभावना
आश्रये ज कल्याण थाय छे.
(३) जीव समजे त्यारे शुभराग–व्यवहार होवा छतां तेना आश्रये कल्याण थतुं नथी पण रागरहित
निश्चयस्वभावना आश्रये ज कल्याण थाय छे.
सर्वज्ञ भगवाने केवळज्ञानद्वारा जगतना पदार्थोने जेम छे तेम जाणीने, वस्तुना अनेक धर्मोनुं वर्णन कर्युं छे.
(१) त्रिकाळी शुद्ध ने वर्तमान अशुद्धता,
(२) उपादान पोतानी ताकातथी समजे अने ते वखते पर निमित्त होय, पण निमित्त कांई करे नहीं.
(३) समजवा टाणे साचा देव–गुरु–शास्त्रनी श्रद्धा वगेरे शुभरागरूप व्यवहार होय, पण धर्म तो
निश्चयस्वभावना आश्रये ज थाय छे.
––ए प्रमाणे बब्बे पडखां होवा छतां, अशुद्धता–निमित्त के राग हुं नहि, शुद्ध–उपादान–निश्चयस्वभाव
ते हुं–एवी श्रद्धा करीने स्वाश्रयभाव प्रगट करवो ते धर्म छे. अनेकांतिक मार्ग होवा छतां सम्यक् एकांत एवा
निजपदनी प्राप्ति माटे ज ते उपकारी छे. बब्बे बोल होवा छतां, तेने जाणीने एक शुद्ध–निश्चय तरफ वळे तेनुं
नाम सम्यक् एकांत छे.
शुद्धता अने अशुद्धता बंने होवा छतां जो शुद्धस्वभाव उपर द्रष्टि नहि करे तो अशुद्धताने जाणशे कोण?
उपादान अने निमित्त बंने होवा छतां, उपादान तरफ वळ्‌या वगर निमित्तनुं यथार्थ ज्ञान करशे कोण?
शुद्धस्वभाव अने राग, अथवा निश्चय अने व्यवहार बंने होवा छतां, निश्चयस्वभाव तरफ द्रष्टि कर्या वगर
व्यवहारने व्यवहार कहेशे कोण? निर्मळ स्वभाव तरफना वलण वगर स्व–परने जाणवानो विवेक उघडशे नहीं.
अभेद स्वभाव तरफ ढळवुं ते ज अनेकांतनुं प्रयोजन छे. अभेद स्वभाव तरफ ढळवुं एम कहो के ‘सम्यक्
एकांत कहो, तेमां मोक्षमार्ग आवी जाय छे.’
अहीं ‘सम्यक् एकांत’ कहीने निमित्त, राग अने व्यवहारने उडाडी दीधा छे अर्थात् ते होवा छतां तेना
अश्रये कल्याण नथी पण निजस्वभावना आश्रये ज कल्याण छे एम समजाव्युं छे. दया, दान के व्रत वगेरे
शुभराग ते दुःख छे–आकुळता छे, अने हिंसा, विषयकषाय वगेरे अशुभ लागणीओ तीव्र दुःख छे–आकुळता छे.
ते शुभ–अशुभ लागणीओ आत्मानी अवस्थामां थाय छे खरी, पण ते त्रिकाळी स्वरूप नथी. अवस्थामां पुण्य–
पाप ने अज्ञान छे, तेनी जो ना पाडे तो समजवानो प्रयत्न करवानुं रहे नहीं; अने त्रिकाळी स्वभावमां ते
पुण्य–पाप के अज्ञान नथी–एम जो न समजे तो त्रिकाळी स्वभावना आश्रय वगर पुण्य–पाप वगेरे टळे नहीं.
व्यवहार, निमित्त ने राग छे तेनी ज्ञानीओ ना नथी पाडता, पण तेनां वडे धर्म थशे, के ते करतां करतां धर्म
थशे–एम मानवानी ना पाडे छे.
जीवोए आ वात कदी रुचिपूर्वक सांभळी नथी. संसारमां जीवे अनंत मनुष्यभव कर्या अने सत्
संभळावनार ज्ञानी अनंतवार मळ्‌या, साक्षात् सर्वज्ञ परमात्मानी सभामां जईने दिव्यध्वनि सांभळ्‌यो, पण
अंतरमां निजपदने पामवानी लायकात पोते प्रगट करी नथी. निजपदने भूलीने परपदमां ज अटकी गयो छे. कां
तो आत्माने एकांत शुद्ध ज मान्यो, कां सर्वथा अशुद्ध मानी लीधो, कां निमित्तथी कल्याण थशे एम मान्युं, कां
व्यवहारना आश्रयथी लाभ मानीने रागमां ज अटक्यो. पण राग अने निमित्त वगरना निजस्वभाव तरफ
कदी वलण कर्युं नहि. स्वभाव तरफ ढळतो निश्चय छे ने पर तरफ ढळतो व्यवहार छे. वस्तुनो स्वभाव ते
उपादान छे अने पर संयोग ते निमित्त छे.
(१) अवस्थामां अशुद्धता होवा छतां आत्मा स्वभावथी शुद्ध छे.
(२) पर निमित्त होवा छतां आत्मा स्वसंवेद्य छे.