: १९२ : आत्मधर्म : द्वितीय अषाढ: २४७६
आपणी समजाववानी रीत सारी होय तो बीजा समजे ते अभिप्राय तद्न जुठ्ठो ठर्यो, मिथ्या ठर्यो, निष्फळ
नीवडयो.
हे भाई! तुं एम माने छे के आपणे बीजानो उद्धार करी दईए, पण कोण कोनो उद्धार करी शके छे?
समजावनार पोते पोताना सत्यभावनुं घोलन करे छे. दुनियाने मानवुं–न मानवुं, कल्याण करवुं–न करवुं ते
तेना पोताना कारणे छे, तेना पोताने आधारे छे.
‘हुं बंधावुं छुं,’ मुकावुं छुं’ एवुं जे अध्यवसान छे तेनी पोतानी अर्थक्रिया जीवोने बांधवा मूकवा–
(मुक्त करवा, छोडवा) ते छे. परंतु जीव तो, आ अध्यवसायनो सद्भाव होवा छतां पण, पोताना सराग–
वीतराग परिणामना अभावथी नथी बधातो, नथी मुकातो; अने पोताना सराग–वीतराग परिणामना
सद्रभावथी, ते अध्यवसायनो अभाव होवा छतां पण, बंधाय छे, मुकाय छे.
तारो भाव एम छे के आने मुकावुं एटले के संसारथी मुक्त करुं, छतां ते सामो जीव ‘हुं आत्मा
ज्ञानानंद छुं, परथी जुदो छुं’ तेवुं भान न करे, श्रद्धा न करे तो ते मुक्त थई शकतो नथी.
तारो भाव एम होय के आ सामा जीवने बंधन करावी दउं, छतां सामो जीव अज्ञान अने राग–द्वेषना
भाव न करे पण श्रद्धा–ज्ञान ने तेमां लीनता करी मुक्तिने प्राप्त करे; तेथी ते बंधातो नथी. तो हवे तारा भावे
कर्युं शुं? तारा भाव हता के हुं आने बंधावी दउं. तो तारा भावे कर्युं शुं? माटे नक्की थयुं के दरेक जीवने बंध–
मुक्ति पोताना ज भावने आधारे छे.
अज्ञानीने ‘पर जीवने बंधावुं अने पर जीवने मुकावुं’ एवा भाव थाय छे; ज्ञानीने परने बंधावा–
मुकावाना भाव थता नथी, परंतु ज्ञानीने पर जीव समजे तो ठीक एम प्रशस्त भाव आवे छे, पण हुं ज धर्म
पमाडी दउं छुं–एवो मिथ्या अभिप्राय होतो नथी. तीर्थंकरदेवने आगला भवमां एवो भाव आवे छे के बधा
जीवो धर्म पामो, बधा जीवो समजो. एवो उत्कृष्ट प्रशस्तभाव आवतां तीर्थंकर नामकर्म बंधाय छे. ‘सर्व जीव
करुं शासनरसी, एसी भावदया मनउलसी’ ए जातनो प्रशस्त भाव तीर्थंकर नामकर्म बंधाती वखते होय छे.
तेमां खरी रीते तो एम छे के मारो निर्विकल्प स्वभाव पूरो थई जाव. अंतरमां तो पोता तरफना भाव छे ने
बहारमां–निमित्तमां पर जीवोने धर्म पमाडवाना भाव छे.
जगतना जीवो अने ज्ञानीना शब्दे शब्दना आशयमां फेर पडे छे. अज्ञानी कहे छे के हुं परने तारी दउं
छुं, अने तीर्थंकर थनार ज्ञानी कहे छे के सर्व जीव करुं शासनरसी ए रीते बंने कहे छे पण आशयमां उगमणो–
आथमणो आंतरो छे. ज्ञानीने अंतरमां पूरा थवानी भावना छे ने अज्ञानीने एकली बाह्यद्रष्टि छे.
ज्ञानी बोले के प्रभो! आपे मने समजाव्यो. तेम गुरु प्रत्ये शुभरागनो विकल्प आवे छे तेथी बहुमानथी
बोले छे ते व्यवहार छे, पण अंदर समजे छे के हुं समजुं तो ज समजाय छे. पोते समजे त्यारे देव–गुरु–शास्त्र
निमित्त कहेवाय छे; एथी निमित्त उपर आरोप करीने ‘प्रभो! आपे मने समजाव्यो’ तेम कहेवाय छे.
विनयवंत शिष्य निमित्त उपर आरोप करीने ‘प्रभो! आपे मने समजाव्यो’ एम गुरुनुं बहुमान करे छे, एवी
विनयनी रीत छे. आचार्यदेव कहे छे के भाई! पोताना सराग–वीतराग परिणामना सद्रभावना आधारे बंधन
ने मुक्ति थाय छे, माटे परनुं तुं कांई पण करी शकतो नथी.
भगवान् आचार्यदेव कहे छे के एक आत्मा बीजा आत्माने बंधन कराववानो भाव अने मुक्ति
कराववानो भाव करी शके छे, परंतु बीजाने बंधन तथा मुक्ति पोते करी शकतो नथी. मात्र भाव करी शके छे.
पोताना सराग अने वीतराग परिणामना आधारे जीवोने बंध–मुक्ति थाय छे.
भगवानने ‘तीन्नाणं तारयाणं’ कहेवाय छे, ते भक्तिथी निमित्त उपर आरोप आपीने कहेवाय छे.
साधकने एवो विचार आव्या वगर रहेतो नथी. परंतु कोई कोईने तारी शकतुं नथी. तरनारो ज्यारे तरे छे
त्यारे भगवाने तार्या तेम निमित्तमां आरोप आवे छे. तारनारो ज्यारे तरे छे त्यारे देव–गुरु–शास्त्रनुं
निमित्तपणुं होय छे, परंतु देव–गुरु–शास्त्र तारी देता नथी; त्रिलोकनाथ तीर्थंकरदेव जो तारी देता होत तो बधा
जीवोने मोक्षमां केम न लई गया? माटे भगवान तारी देता नथी, पण तरनारो ज्यारे तरे छे त्यारे भगवानने
निमित्त कहेवाय छे.