Atmadharma magazine - Ank 081a
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 14 of 21

background image
: द्वितीय अषाढ: २४७६ आत्मधर्म : १९३:
आत्मा पोते पोताथी बंधाय छे ने मुकाय छे. आत्मानुं बंधावुं–मुकावुं पोताने कारणे छे. एक आत्मामां
बीजानुं कांई पण करी शकवानी त्रेवड नथी, बीजानुं कांई पण करवाने आत्मा समर्थ नथी. आत्मभगवान देहथी
जुदुं तत्त्व छे, ते परना कारणे बंधाय छे ने मुकाय छे–एम जे माने छे ते आत्माने ओशियाळो बनावे छे. आत्मा
पोते स्वतंत्र तत्त्व छे, एने बंधावुं–मुकावुं ते पोताना हाथमां छे. पोताना पुरुषार्थवडे पोतानी मुक्ति थाय त्यारे
भगवानने निमित्त कहेवाय छे. भगवानना समवसरणमां ईंद्रो आवे छे अने ईंद्रो पोते ज समवसरण रचे छे.
भगवाननो दिव्यध्वनि एकाक्षरी होय छे, होठ बंध होय छे अने दिव्यध्वनि छूटे छे; भगवाननी सभामां कोईक
एवा जीवो पण बेठेला होय छे के त्यांथी ध्वनि सांभळीने बहार जईने ऊंधा पडे छे; भगवाननी सभामां ईंद्रो
अने चक्रवर्ती वगेरे होय छे अने आवा ऊंधा पडनार जीवो पण होय छे. भगवान जो तारी देता होय तो बधा
समजी जवा जोईए; पण बधा समजी जता नथी, जेनी लायकात होय ते समजे छे. परंतु समजे त्यारे तेने विनय
आव्या वगर रहेतो नथी, विनयथी निमित्त उपर आरोप करीने कहे छे के हे जिनेन्द्रदेव! आपे मने तार्यो, हे
नाथ! तरणतारण आप छो, आपे मने तार्यो, आपे मने उगार्यो, आपना दिव्यध्वनि वडे हुं समज्यो, आपना
दर्शनथी हुं संसारसागर तर्यो. एम, पोते पोताना पुरुषार्थवडे समजे त्यारे सामा निमित्त उपर भक्तिभाव
आव्या वगर रहेतो नथी, विनयभाव आव्या वगर रहेतो नथी, एवुं साधकनुं स्वरूप छे.
आचार्यदेव कहे छे के भगवान कोईने तारी देता नथी, पोताना पुरुषार्थ वगर पोतानो मोक्ष नथी. माटे
तारो बीजाने बांधवा–मुकावानो अभिप्राय छे ते तद्न खोटो छे. भगवान पण बीजाने तारी शकता नथी,
भगवान वीतराग छे, वीतरागने ईच्छा होती नथी, ते तो चैतन्य परमब्रह्म थई गया छे–पूर्णानंद पूर्णस्वरूप
थई गया छे; भगवानने एक पण रागनो विकल्प नथी छतां तेमनी सभामां ढोर, मनुष्य ने विद्याधरो धर्म
पामी जाय छे, तेथी सिद्ध थाय छे के कोई कोईने मुक्त करी शकतुं नथी ने कोई कोईने तारी पण शकतुं नथी.
भगवाननी सभामां ढोर पण आत्मधर्म पामी जाय छे अने अहीं केटलाक मनुष्य थईने पण धर्मनो अनादर
करे छे. बहार जईने कहे छे के आवी ते वात होती हशे? रोटलानी वात नहि, पैसानी वात नहि ने त्रणे टाणां
एक आत्मानी ज मांडी छे! एम करीने धर्मनी आस्रातना करे छे, अने विराधक थाय छे. ते पण पोताना
कारणथी, बीजाना कारणथी नहि.
भगवान पण कोईनुं कांई करी शकता नथी. बधा जीव अने जड परमां कांई पण करवाने अकिंचित्कर छे
एटले के कोई कोईनुं कांई करी शकतुं ज नथी.
कोई दिगंबर मुनिराज ध्यानमां होय, ने अडतालीश मिनिटमां मोक्ष लेवाना होय; त्यां पूर्वनो कोई वेरी
देव आवीने लवण समुद्रना खारा पाणीमां मुनिराजने बोळी मूके. पण मुनिराज तो, पाणीमां ज्यां शरीर पड्युं
त्यां ते वखते ज स्वरूपमां लीन थया, ने लीन थया के तरत ज केवळज्ञान प्रगट थयुं ने तरत ज मोक्ष थयो.
सामो वेरी देव जाणे के आने नरकमां लई जाउं. उपसर्ग देनारा देवने एम विचार आवे के आने आवा ऊंडा
पाणीमां गूंगळावी नांखुं, मूंझवी नांखुं. परंतु मुनिराज तो चिदानंद ज्ञातानुं चोसलुं जुदुं पाडीने, रागनो अंश
हतो तेने तोडीने, वीतरागता करी केवळज्ञान पामी मुक्तिने पाम्या; अने उपसर्ग देनारा देवे रौद्र ध्यानना भूंडा
परिणाम कर्यां तेथी अशुभ कर्म बांधी दुर्गतिमां जाय. कोईने एम थाय के देवमां बहु सुख हशे, परंतु देवमां पण
राग–द्वेष ने ईर्षाना बधा भावो पड्या छे. सुख तो आत्माना स्वभावमां छे, देवमां सुख छे नहि.
देवना परिणाम तो मुनिराजने कर्मथी बंधावाना हता के मुनिने उपसर्ग आपुं ने मुनि राग–द्वेषना
परिणाम करी कर्मथी बंधाय. परंतु मुनि तो स्वभावनी समता राखीने पुरुषार्थ करीने केवळज्ञान पाम्या. माटे
सिद्धांत थयो के कोईना परिणाम वगर कोई कोईने बंधावी–मुकावी शकतुं नथी.
कोईने एम थाय के हुं बीजानी मुक्ति करावी दउं. पण बीजानी मुक्ति कराववी कांई सामाना हाथनी
वात नथी. सामानो भाव एना पोताना कारणे फरे ने स्वभाव तरफ ढळे तो मुक्ति थाय. बीजाना भावनुं
अधिकारीपणुं पोतामां आवतुं नथी. माटे बीजानी मुक्ति कराववानी त्रेवड पोतामां नथी. हुं बीजानी मुक्ति
करावी दउं एवो अभिप्राय स्व–परमां एकत्व–बुद्धि थया विना संभवे नहि.
श्री समयसार–बंध अधिकार गा. २६७ उपरना प्रवचनोमांथी