आत्मामां परनुं कार्य करवानी शक्ति नथी. आत्मा परनुं कांई करी शकतो नथी, केम के जड के चेतन बधां तत्त्वो
अनादिअनंत स्वयंसिद्ध पोतपोतानी अवस्थामां पलटी रह्यां छे. जगतमां दरेके दरेक रजकणनी क्रिया स्वतंत्र
एनी मेळे थई रही छे. एक आत्मा शरीरने चलावी शके नहि तेम ज स्थिर पण राखी शके नहि, भाषा बोली
शके नहि, कर्म बांधी शके नहि, पर जीवने मारी के बचावी शके नहि, सुखी–दुःखी करी शके नहीं, तेने मदद के
नुकसान करी शके नहि. जीव पोतानी अवस्थामां मात्र शुभ–अशुभ के शुद्ध भाव करी शके. जीव एकबीजाने
सुखी–दुःखी करे, शरीरादिनी क्रिया हुं करुं एम अज्ञानीए अनादिनुं मान्युं छे, परंतु तेम थई शकतुं नथी. परने
सुखी–दुःखी करवानी ताकात कोईमां छे ज नहीं. आ जगतमां दरेक आत्मा तेम ज दरेक रजकण स्वतंत्र भिन्न
भिन्न छे. कोई तत्त्वो एकबीजा उपर प्रभाव पाडी शके नहि.
स्वरूपनी बाह्य ज बीजा द्रव्यो लोटे छे, कोई द्रव्यमां कोई द्रव्य प्रवेशी जतुं नथी, एटले एक पदार्थमां बीजा
अनंत तत्त्वो कांई पण करे–एम त्रणकाळमां बनतुं नथी. वस्तुना द्रव्य–गुण तो त्रिकाळ एकरूप छे, एटले तेमां
कांई करवानुं नथी. अहीं द्रव्य–गुणनी वात नथी पण पर्यायनी वात छे; पर्यायो नवी नवी थाय छे, ते पर्यायो
द्रव्यना आधारे ज थाय छे. नवी नवी पर्यायो निमित्तने लीधे थाय छे–एवो अज्ञानीनो भ्रम छे. एक द्रव्यनी
वर्तमान हालत बीजा द्रव्यनी वर्तमान हालतमां कांई करे ते वात अज्ञानीए मानेली छे, वस्तुस्वरूप तेम नथी.
प्रसंग छे. आ सीमंधर भगवाननी मूर्ति ठेठ जयपुरथी अहीं आवी, ते मूर्तिने जयपुरथी अहीं लाववानी क्रिया
कोई आत्माए करी नथी, पण ते पखार्थना स्वकाळे तेनुं क्षेत्रांतर थयुं छे. मूर्तिना दरेक रजकण तेनी स्वतंत्र
योग्यताना सामर्थ्यथी क्षेत्रांतर थया छे, आत्मा तेनी क्रियाने करतो नथी. आत्मा तो पोताना ज्ञाता वीतरागी
स्वभावने चूकीने ‘आ जडनी क्रिया हुं करुं ने राग हुं करुं’ –एम मानीने पोताना मिथ्यात्वभावने उत्पन्न करे
छे. आ अज्ञानीनुं कार्य छे. अने धर्मी–ज्ञानी जीव होय तो ते परनी क्रिया हुं करुं एम मानता नथी तेम ज
क्षणिक राग थाय तेनुं कर्तापणुं पण स्वभावद्रष्टिमां स्वीकारता नथी, स्वभावद्रष्टिथी निर्मळ पर्याय प्रगटे छे
तेना ज ते कर्ता छे. आ ज्ञानीनुं कार्य छे.
स्वीकारे ते पण अज्ञानी छे. आत्मा ज्ञायकमूर्ति निर्विकार छे, ते विकारनो कर्ता नथी–एम समजाववा माटे अहीं
ते विकारने आचार्यदेवे पुद्गलना परिणाम कही दीधा छे.
लक्षे थाय छे, धर्मीनी द्रष्टि आत्माना स्वभाव उपर छे अने ते स्वभावमांथी विकारभाव आवता नथी,