Atmadharma magazine - Ank 081a
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: द्वितीय अषाढ: २४७६ आत्मधर्म : १९५:
माटे तेने जड पुद्गलपरिणाम कहीने आत्माथी अन्य वस्तु कहेवामां आवी छे. पण ते परिणाम कांई पुदग्लमां
थतां नथी तेम ज कर्म पण करावतुं नथी. आत्मानी पर्यायमां ते थाय छे पण अहीं ते पर्यायबुद्धि छोडाववा माटे
तेने आत्माथी अन्य कह्यां छे.
जेम फूलझरणीमांथी तो तणखा झरे, कांई कोयलाना कटका न झरे, तेम चैतन्यपिंड आत्मामांथी तो ज्ञान–
दर्शनना अरागी भाव ज प्रगटे–एवो एनो स्वभाव छे; पण अज्ञानीने तेनी रुचि नथी तेथी बाह्यनी रुचि वडे
ते पोतानी अवस्थामां विकारभाव प्रगट करे छे अने तेनो ते कर्ता थाय छे. धर्मी जीव स्वभावनी रुचिमां
विकारनो कर्ता थतो नथी. सम्यग्दर्शननो विषय तो पुण्य–पापथी अन्य वस्तु छे; जे पुण्य–पापनी लागणी थाय ते
सम्यग्दर्शनना विषयभूत चैतन्यनो स्वभाव नथी माटे परमार्थे ते विकारी लागणीओ आत्माथी अन्य छे.
आवा आत्माना स्वभावनुं भान थतां, विकार साथे पण कर्ताकर्मपणुं छूटीने आत्मा निर्मळ वीतरागी
अवस्थानो कर्ता थाय तेनुं नाम धर्मक्रिया छे. आ सिवाय भगवानना पंचकल्याणक करावीने तेनाथी आत्मानुं कल्याण
मानी ल्ये तेने आत्मानुं भान नथी. बहारनी क्रियाओ तो जडथी थाय छे, अने शुभराग थाय ते विकार छे, ते
विकारनो हुं कर्ता ने ते मारुं कार्य एम माने ते पण अधर्मी छे. पर तरफनो–भगवान तरफनो शुभराग ते पण
विकार छे; जे जीवने ते रागनी रुचि अने उत्साह छे पण शुद्धात्मानी रुचिनो अभाव छे, तो तेने आचार्यभगवान
समजावे छे के पुण्य–पाप ते आत्माना स्वभावथी अन्य वस्तु छे, केम के जो अन्य न होय तो ते टळी ने कदी
रागरहित सिद्धदशा थाय नहि. सिद्धदशामां पुण्य–पापना भाव होता नथी, माटे ते आत्मानुं खरुं कर्तव्य नथी.
त्रिलोकनाथ तीर्थंकर भगवान पासे अनंतवार गयो अने तेमना आवा उपदेशनुं श्रवण कर्युं, परंतु
भडना दीकराए पोतानी ऊंधी मान्यता मूकी नहीं, अंदरमांथी पुण्यनी रुचि अने तेनी कर्तृत्वबुद्धि गई नहीं ने
आत्माना स्वभावनी रुचि थई नहीं. तेथी पोतानी ऊंधी द्रष्टिए विकारनी उत्पत्ति थई, ने संसारमां रखडयो.
‘द्रष्टि तेवी सृष्टि.’ सृष्टि एटले उत्पत्ति; जेवी द्रष्टि होय तेवी पर्यायनी उत्पत्ति थाय. जो शुद्ध चैतन्यस्वभाव
उपर द्रष्टि होय तो पर्यायमां सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप शुद्धतानी उत्पत्ति थाय, अने जो विकार उपर द्रष्टि
होय तो पर्यायमां मिथ्यात्वादि विकारनी उत्पत्ति थाय.
विकाररहित अखंड चैतन्यस्वभावनुं जेने भान नथी अने विकारनो हुं कर्ता–विकार ते ज हुं–एवी
विकारनी बुद्धि छे तेने ते विकारबुद्धि छोडाववा अने स्वभावद्रष्टि कराववा कहे छे के हे भाई! तुं क्षणिक विकारना
कर्ता–कर्मनी बुद्धि छोड. तारो स्वभाव क्षणिक विकार जेटलो नथी. पहेलांं पोताना यथार्थ वस्तुस्वभावने ख्यालमां
लेवो जोईए, तेनी रुचि अने विश्वास करवो जोईए. यथार्थ वस्तुना भान विना ज्ञानने कये ठेकाणे थंभावशे?
अने कोनुं शरणुं लईने धर्म करशे?
नीचली दशामां धर्मीने पण पुण्य–पापना भावोनी उत्पति थाय, परंतु तेने तेनी मुख्यता भासती नथी.
स्वभावनी मुख्यतानी द्रष्टिमां विकारनो अभाव ज भासे छे. स्वभावना वलणनी मुख्यता खसे तो साधकदशा
रहेती नथी. जो एक समय पण स्वभावना वलणनी मुख्यता खसीने विकारनी मुख्यता थाय तो ते जीव मिथ्याद्रष्टि
छे. शुभरागनी उत्पत्ति वखते जो पुण्यनी ज मुख्यता भासे अने स्वभावनी मुख्यता न भासे तो तेने स्वभावथी
अन्य वस्तुनी एटले के जड कर्मनी उत्पत्ति थाय छे. धर्मी जीवने ते रागनी अल्पताने गौण करीने शुद्ध त्रिकाळी
स्वभावनी मुख्यता छे, ते सम्यग्दर्शन छे, अने स्वभावनी मुख्यतामां तेने क्षणे क्षणे निर्मळदशानी उत्पत्ति थया करे
छे, ते धर्मीनुं धर्मकर्तव्य छे. छ खंडनुं राज्य अने छन्नुं हजार स्त्रीओना वृंदमां पडेला सम्यग्द्रष्टि चक्रवर्तीने
अंतरमां एक क्षण पण स्वभावनी मुख्यता खसती नथी ने विकारनी मुख्यता थती नथी. वर्तमान कोई पर्यायमांथी
‘हुं शुद्ध स्वभाव छुं’ एवुं वलण एक क्षण पण खसतुं नथी, एटले समये समये तेमने निर्मळ पर्यायनी उत्पत्तिरूप
धर्म थाय छे. आ प्रमाणे आत्मा अने आस्रवोनो तफावत देखवाथी ज एटले के भेदविज्ञानथी ज धर्म थाय छे.
हुं क्षणिक राग जेटलो नथी पण रागरहित ज्ञातास्वरूप छुं–एवा वलणमां स्वसन्मुख द्रष्टि थतां
विकारनी मुख्यता न भासे ते सम्यग्दर्शन छे. पहेलांं पात्र