एक वार यथार्थ रुचिथी हा पाड. सत्यस्वभावनी ‘हा’ पाडतां पाडतां, तेनी ‘लत’ लागतां हा मांथी हालत
थई जशे. जेवो पोतानो स्वभाव छे तेनी रुचि करीने हा पाडतां तेवी हालत प्रगट थई जशे. सत्यस्वभावनी
हा पाड तो सिद्धदशा थशे, अने सत्यस्वभावनी ना पाडीने तेनो अनादर करतां नरक–निगोद दशा थशे. सत्य
वस्तुस्वभावने लक्षमां लईने तेनी रुचिथी हा पाडवामां पण अपूर्व पात्रता छे.
कर्ताकर्मपणानी बुद्धि पण अज्ञानथी उत्पन्न थाय छे, अज्ञानीने एवी कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति अनादिथी चाली आवे
छे, ते ज अधर्म अने संसारनुं मूळ छे. ते कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति क्यारे टळे ते वात अहीं आचार्यदेवे समजावी छे.
क्रोधादिक भावोने अने आत्माने निश्चयथी एक वस्तुपणुं नथी, बंनेनो स्वभाव भिन्न भिन्न छे. ए प्रमाणे जीव
ज्यारे आस्रवो अने आत्मानुं भेदज्ञान करे छे त्यारे अज्ञानथी उत्पन्न थयेली कर्ताकर्मनी प्रवृत्ति निवृति थाय छे.
ते अवस्थानी पोतापणे अस्ति छे, एवो तेनो अस्तिनास्ति स्वभाव छे, तेथी ते पण वस्तु छे. ते त्रिकाळी
द्रव्यरूप वस्तु नथी पण क्षणिक पर्यायरूप वस्तु छे. विकार विकारपणे छे ने स्वभावपणे नथी, पूर्वनी के पछीनी
नास्ति–एवा अनंत धर्म तेनामां सिद्ध थया. एक द्रव्यना अनंत गुणो, अने ते एकेक गुणोनी अनंत पर्यायो, ते
एकेक पर्यायमां अनंत अविभाग प्रतिच्छेदो, अने एकेक अविभागप्रतिच्छेद अंशमां बीजा अनंत अविभाग–
अंशनी नास्ति छे एटले एकेक अविभाग प्रतिच्छेद अंशमां अनंत अस्ति–नास्ति धर्म छे.
आत्माना स्वभाव तरफ वळतां विकारनो नाश करवो पडतो नथी पण थई जाय छे. स्वभावद्रष्टिमां आत्मा
विकारनो कर्ता नथी, तेम तेनो छोडनार पण नथी. आत्मा परनुं तो ग्रहण के त्याग करतो नथी पण खरेखर
विकारनुं पण ग्रहण के त्याग आत्माना स्वभावमां नथी. दरेक आत्मामां ‘त्यागोपादानशून्यत्व’ नामनी शक्ति
त्रिकाळ छे, एटले आत्मा स्वभावथी विकारनुं ग्रहण के त्याग करतो नथी. हुं विकारनो करनार छुं–एवी जेनी
बुद्धि छे ते तो मिथ्याद्रष्टि छे ज. पण हुं विकारने छोडुं–एवी जेनी बुद्धि छे ते पण पर्यायमूढ मिथ्याद्रष्टि छे. केम
के ‘हुं विकारने छोडुं’ एवा लक्षे विकार छूटतो नथी पण विकारनी उत्पत्ति थाय छे, छतां तेने विकार टाळवानो
उपाय माने छे ते जीव पर्यायबुद्धि छे. विकारने हुं टाळुं–एवा लक्षे पण थाय छे तो विकारनी उत्पत्ति, अने ते
जीव माने छे एम के हुं विकारने टाळुं छुं–एटले तेणे विकारना लक्षे लाभ मान्यो, ते जीव मिथ्याद्रष्टि छे. पण
ज थती नथी. स्वभाव तरफ वळतां आत्मा अने विकारनी भिन्नतारूप परिणमन सहेजे थतुं जाय छे.
विकारने–परने जाणे एवी स्व–परप्रकाशक ज्ञाताशक्ति प्रगट थाय छे, तेथी तेमां परनुं ज्ञान थई जाय छे, पण
परसन्मुख वळीने परने जाणवा जतो नथी.
निश्चित स भवेद्भव्यो भावि निर्वाण भाजनम्।।