Atmadharma magazine - Ank 081a
(Year 7 - Vir Nirvana Samvat 2476, A.D. 1950)
(Devanagari transliteration).

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: १८४ : आत्मधर्म : द्वितीय अषाढ : २४७६
हे भव्य! तुं आत्मानी प्रीति कर.
पू. गुरुदेवश्री संघसहित श्री शत्रुंजयसिद्धक्षेत्रनी यात्राए पधार्या ते प्रसंगे
पालीताणामां श्री समयसार गाथा २०६ उपर पू. गुरुदेवश्रीनुं खास प्रवचन
श्री आचार्यदेव ज्ञानस्वरूप आत्माना अनुभवनो उपदेश करे छे–
‘आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट ने आनाथी बनतुं तृप्त, तुजने सुख अहो उत्तम थशे.’
२०६.
हे भव्य! तुं आमां (–ज्ञानमां) नित्य रत अर्थात् प्रीतिवाळो था, आमां नित्य संतुष्ट था अने आनाथी
तृप्त था; (आम करवाथी) तेने उत्तम सुख थशे.
श्री आचार्यदेव कहे छे के तुं आमां प्रीतिवंत बन.–शेमां? ज्ञानस्वरूप आत्माने ओळखीने तेनी प्रीति
कर. आत्माने भूलीने शरीर अने पुण्यादिनी प्रीति करीने तुं अनादिथी संसारमां रखडयो छे. माटे हे भव्य! तुं
तेनी प्रीति छोडीने आ आत्मानी प्रीति कर. जड कर्म तो ताराथी भिन्न संयोगी चीज छे, शरीरादि पण
आत्माथी त्रिकाळ तद्न भिन्न छे, अने अवस्थामां पुण्य–पापनी लागणी थाय ते क्षणिक विकार छे, ते तारा
ज्ञानस्वरूपथी भिन्न छे, ते कोईनी प्रीतिथी आत्मानी शांति थती नथी. माटे हे आत्मा! जे ज्ञानस्वरूप छे ते ज
आत्मा छे–एम ओळखीने तुं आत्मामां ज प्रीति कर.
आ जगतमां अनंत आत्माओ छे, ते दरेक भिन्न–भिन्न स्वतंत्र छे. तेनो कोई कर्ता नथी. दरेक आत्मा
नित्य छे, ते कोई संयोगीथी उत्पन्न थयेलो नथी, ने तेनो कदी सर्वथा नाश थतो नथी. देह तो संयोगी वस्तु छे
ने तेनो नाश थई जाय छे. आत्मा देहथी भिन्न असंयोगी अविनाशी छे, ते भूतकाळमां हतो, वर्तमानमां छे ने
भविष्यमां पण सदाय रहेशे. एटले के ते त्रिकाळ छे. जे पदार्थ होय तेनो कदी सर्वथा नाश थाय नहि, अने जे
पदार्थ न होय तेनी नवी उत्पत्ति थाय नहि. आत्मवस्तु त्रिकाळ छे–छे ने छे. तेने कोईए रच्यो नथी. जो
पदार्थनो कोई रचनार कहो तो ते पदार्थ नित्य रहेतो नथी, पण कृत्रिम थई जाय छे. कृत्रिम पदार्थ नित्य होई
शके नहि. देहथी भिन्न आत्मा स्वयंसिद्ध पदार्थ छे तेने जाण्या विना अनंतकाळथी जीवनुं संसारपरिभ्रमण थयुं
छे. तेने कोई बीजाए रखडाव्यो नथी पण
‘अपने को आप भूल के हैरान हो गया’ पोते ज पोताने भूलीने
हेरान थयो छे, पोतानो ज अपराध छे. तेथी आचार्य भगवान उपदेश आपे छे के हे भाई! हवे तुं आत्मामां
प्रीति कर. अहीं आत्मानी प्रीति करवानुं कह्युं तेमां एम आवी गयुं के अत्यार सुधी आत्मा सिवाय क्यांक बीजे
तारी प्रीति छे. एटले आ जगतमां एक आत्मा ज सत् छे ने बीजुं बधुं असत् छे–एम नथी, आत्मा सिवाय
बीजा जड पदार्थो पण छे अने आत्माने भूलीने तेमां तें प्रीति करी छे. वळी ते प्रीति कोई बीजाए तने करावी
नथी, कर्मे करावी नथी, पण तें ज आत्माने भूलीनु परनी प्रीति करी छे, ते फेरवीने आत्मानी प्रीति करवामां तुं
स्वतंत्र छे, तेमां तने कर्म रोकतुं नथी. माटे आचार्यदेव कहे छे के हे जीव! हवे तुं आ ज्ञानस्वरूप आत्माने
ओळखीने तेनी प्रीति कर.
पोते कोण छे? तेनी जीवे कदी ओळखाण करी नथी अने तेनी प्रीति करी नथी. अने देह ते ज हुं अथवा
तो पुण्य–पाप ते ज हुं–एम मानीने तेनी प्रीतिमां अटक्यो छे, तेथी ज संसार छे. आत्मा तो ज्ञानदर्शननो पिंड
अरूपी पदार्थ छे. शरीर वगेरे पर पदार्थनो तेनामां त्रणेकाळ अत्यंत अभाव छे. कोई पण पदार्थ होय ते
स्वपणे होय ने परपणे न होय, तो ज तेनी हयाती टकी शके; नहितर ते टकी न शके. वस्तु जेम पोतापणे छे
तेम जो परपणे पण होय तो बे वस्तु एक थई जाय एटले वस्तुनुं स्वतंत्र होवापणुं ज न रहे. अने जेम
परपणे नथी तेम स्वपणे पण जो वस्तु न होय तो वस्तुनो अभाव ज ठरे. आत्मा वस्तु छे ते स्वपणे एटले के
पोताना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावरूप स्वचतुष्टयथी छे, ने परपणे एटले के परना द्रव्य–क्षेत्र–काळ–भावरूप
परचतुष्टयथी नथी; ए ज प्रमाणे जे परवस्तु छे ते तेना पोतापणे छे ने आत्मापणे नथी. आ रीते एकनो
बीजामां तद्न अभाव छे. आवो भगवाननो